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________________ क्यों नहीं है? अभी तो बहुत वर्षों तक जीवित रहोगे। नव अंगों की व्याख्या तुम्हारे ही हाथों से होगी।" आचार्य ने कहा-"मेरे शरीर की तो यह अवस्था है, मैं व्याख्या कैसे कर सकूँगा?" तब देवी ने उन्हें उपदेश दिया-" स्तम्भनकपुर में सेढी नदी के किनारे खाखर (पलाश) पत्तों के नीचे पार्श्वनाथ भगवान् की स्वयंभू प्रतिमा विद्यमान है। उस प्रतिमा के आगे भक्ति भाव से स्तवना कर देववंदन कीजिए। आपका शरीर स्वस्थ हो जायेगा।" ऐसा कहकर देवी अदृश्य हो गई। प्रात:काल होते ही गुरुजी अन्तिम मिथ्या-दुष्कृत दान देंगे-इस अभिप्राय से स्थानीय और बाहर रहने वाले सब श्रावक एकत्रित होकर आये और पूज्यश्री को वन्दना की। पूज्यश्री ने कहा-"हम पार्श्वनाथ भगवान् की वन्दना करने के लिए स्तम्भनकपुर जायेंगे। अब यहाँ नहीं रहेंगे और अब संथारा भी नहीं लिया जायेगा।" सूरीश्वर के विचार में सहसा परिवर्तन देखकर श्रावकों को विश्वास हो गया कि महाराज श्री को अवश्य ही किसी न किसी शासन देव का उपदेश हुआ है। उन्होंने निवेदन किया-"भगवन् ! हम लोग भी भगवदर्शन के लिए आपके साथ चलेंगे।" यात्रार्थी श्रावकों का संघ तैयार हो गया। महाराज के लिए यान का प्रबन्ध किया गया। शुभ शकुन में सारा ही संघ वहाँ से रवाना हो गया। रोग के कारण महाराज की भूख सर्वथा बंद सी हो गई थी। परन्तु देव-गुरु की कृपा से मार्ग में पहले ही प्रयाण में महाराज की भूख कुछ-कुछ जागृत हुई और षड् रसों की अभिलाषा होने लगी। चलते-चलते जब धवलका' नामक ग्राम में पहुँचे, तब तक तो सूरिजी का शरीर सब पीड़ा दूर होकर स्वस्थ हो गया। स्वस्थ होने पर आचार्यश्री ने वाहन का त्याग कर दिया और पैदल ही यात्रा करते हुए स्तम्भनकपुर पहुंचे। वहाँ पर श्रावक लोग श्री पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा को शासनदेवी के कहने के अनुसार खोजने लगे। परन्तु उन्हें कहीं भी दिखाई नहीं दी। हताश होकर गुरुजी से आकर पूछा-"भगवन् ! प्रतिमा किस स्थान पर है?" गुरु महाराज ने कहा-"ढाक के पत्तों के ढेर के नीचे देखो।" गुरुजी की आज्ञानुसार पत्तों को हटाने पर सब ने देदीप्यमान प्रतिमा देखी। वहाँ के निवासियों से भक्त वृन्द को ज्ञात हुआ कि यहाँ पर एक गाय प्रतिदिन आकर भगवान् की प्रतिमा को स्नान कराने के लिये दूध झारती थी। भगवान् की प्रतिमा के दर्शन करके श्रावक बड़े आनन्द विभोर हुये और गुरुजी से आकर निवेदन किया-"भगवन् ! आपके बतलाए हुए स्थान पर प्रतिमा प्राप्त हो गई है।" श्रावकों के ये वचन सुनकर आचार्य भगवद्वन्दना के लिये चले। वहाँ प्रतिमा के दर्शन करके भक्तिपूर्वक स्तुति करते हुए आचार्यजी ने खड़े-खड़े ही शासनदेवी की सहायता से "जय तिहुयण' आदि ३२ पद्यों के स्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र में अन्तिम दो गाथायें देवताओं का आकर्षण करने वाली थीं। इसलिये देवताओं ने आचार्य महाराज से कहा-"भगवन् ! नमस्कार सम्बन्धी तीस गाथाओं १. वर्तमान में खंभात को मानते हैं पर वहाँ तो समुद्र में मही नदी सम्मिलित होती है। अत: खेड़ा के निकट सेढी नदी के तीर पर बसा हुआ हाल मौजूद थांभण नामक ग्राम ही स्तंभनकपुर समझना चाहिए जहाँ पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट हुई थी। २. यह गुजरात प्रान्त का वर्तमान "धोलका" दादा श्रीजिनदत्तसूरिजी की जन्मभूमि है और कलिकुण्ड पार्श्वनाथ का प्राचीन तीर्थ भी है जिसका जीर्णोद्धार हो गया है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१५) _Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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