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________________ के स्तोत्र पाठ से ही हम प्रसन्न होकर पाठ करने वालों का कल्याण करेंगे। अन्तिम दो गाथाओं के पाठ से तो हमको प्रत्यक्ष उपस्थित होना पड़ेगा, जो हमारे लिये कष्टदायी होगा। अतः स्तोत्र में से अन्त की दो गाथाओं का संहरण कर दीजिये।" देवताओं के अनुरोध से आचार्य ने स्तोत्र में से वे दो गाथाएँ कम कर दीं। वहाँ पर आचार्य महाराज ने सारे समुदाय के साथ देववन्दन किया और संघ समुदाय ने अनेक उपचारों से विस्तारपूर्वक पूजा कर उस प्रतिमा की वहाँ स्थापना की और वहाँ पर एक सुन्दर विशाल देव मन्दिर का निर्माण किया गया। तभी से विश्व में श्री अभयदेवसूरि द्वारा स्थापित सब मनोरथों का पूर्ण करने वाला यह श्री पार्श्वनाथ स्वामी का तीर्थ प्रसिद्ध हुआ। १०. वहाँ से विहार कर आचार्य महाराज पाटण शहर में आ गए। वहाँ पर स्वर्गीय जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रतिष्ठित "करडि हट्टी" वसति में रहे। सब प्रकार की सुविधा देखकर स्थानांग, समवायांग, विवाहप्रज्ञप्ति आदि नौ अंगों की टीका का प्रणयन प्रारम्भ किया। व्याख्या करते समय कहीं-कहीं पर जब-जब उन्हें सन्देह होता तो वे जया-विजया-जयन्ती-अपराजिता नामक शासनदेवियों का स्मरण करते थे। वे देवियाँ महाविदेह क्षेत्र में विराजमान तीर्थंकर भगवान् से पूछकर जब तब उनका सन्देह निवारण करती थीं। ११. उन्हीं दिनों में चैत्यवासी आचार्यों में प्रधान द्रोणाचार्य ने भी सिद्धान्त व्याख्या-आगम वाचना प्रारम्भ की। अपने-अपने शास्त्र लेकर सभी चैत्यवासी आचार्य उनके पास श्रवण करने हेतु आने लगे। महाराज अभयदेव जी भी वहाँ जाया करते थे। उनको द्रोणाचार्य अपने पास आसन पर बिठलाते थे। सिद्धान्तों की व्याख्या करते समय जिन-जिन गाथाओं में आलापकों में द्रोणाचार्य को सन्देह होता था, वहाँ वे आचार्य अभयदेवसूरि जी से इतने मंद स्वर से ऐसे बोल देते थे कि दूसरों को कुछ सुनाई नहीं देता। इस तरह होते हुए किसी दिन जिस स्थल का व्याख्यान होने वाला था उसी स्थल की व्याख्यावृत्ति आचार्य श्री अभयदेवसूरि जी ने लाकर द्रोणाचार्य को दी और कहा-"इसे देख एवं विचार कर आप सिद्धान्त का व्याख्यान करें।" जो कोई भी उस व्याख्या को अर्थ-विचारणा पूर्वक देखता था, वह आश्चर्यचकित हो उठता था। किन्तु द्रोणाचार्य ने जब उस व्याख्या को पढ़ी तो उन्हें तो बड़ा ही विस्मय हुआ। वे सोचने लगेक्या यह व्याख्या गणधरों की बनायी हुई है या अभयदेवसूरि की? जब उन्हें मालूम हुआ कि अभयदेवसूरि की ही बनाई हुई हैं, तब तो द्रोणाचार्य के मन में अभयदेवसूरि के प्रति सम्मान का भाव बहुत बढ़ गया। दूसरे दिन व्याख्यान के समय जब अभयदेवसूरि व्याख्या श्रवण करने आये तब द्रोणाचार्य गद्दी से खड़े होकर उनका स्वागत करने के लिये सम्मुख गये। अपने आचार्य के द्वारा विधिमार्गानुयायी आचार्य के प्रति प्रतिदिन इस प्रकार आदर देखकर वहाँ आने वाले सब चैत्यवासी आचार्य रुष्ट हो गये। सभास्थल से उठकर सब के सब अपने-अपने स्थान में जाकर कहने लगे-"अभयदेवाचार्य में हमसे कौन सा गुण अधिक है? जिसके कारण हमारे प्रधान आचार्य भी उनका इतना आदर करते हैं। ऐसा करने से हमारी प्रतिष्ठा तो सर्वथा नष्ट ही हो गई। और फिर हम तो कुछ भी नहीं रहे।" द्रोणाचार्य तो बड़े बुद्धिमान और गुणों के पक्षपाती थे, उन्होंने (१६) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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