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________________ एक नूतन श्लोक बनाकर मठों में सब चैत्यवासी आचार्यों के पास भिजवाया : आचार्याः प्रतिसद्म सन्ति महिमा येषामपि प्राकृतैमातुं नाऽध्यवसीयते सुचरितैस्तेषां पवित्रं जगत्। एकेनाऽपि गुणेन किन्तु जगति प्रज्ञाधनाः साम्प्रतं, यो धत्तेऽभयदेवसूरिसमतां सोऽस्माकमावेद्यताम्॥ [आजकल घर-घर में अनेक आचार्य हैं, जिनकी महिमा को भी साधारण पुरुष समझ नहीं सकते और जो अपने सच्चरित्रों से सारे संसार को पवित्र कर रहे हैं। यद्यपि यह सब कुछ सत्य है, फिर भी मैं विद्वान् लोगों से पूछता हूँ कि इस समय जगत् में कोई एक आचार्य भी ऐसा बतलावें जो किसी एक गुण में भी इन अभयदेवसूरि की समानता कर सकता हो!] इस श्लोकबद्ध सूचना को पढ़कर सब आचार्य ठंडे पड़ गये। तदनन्तर द्रोणाचार्य ने अभयदेवसूरि से कहा-"आप सिद्धान्तों की जो वृत्तियाँ बनावेंगे उनका लेखन और संशोधन मैं करूँगा।" वहाँ पर रहते हुए श्री अभयदेवसूरि जी ने दो पारिग्रहिक-परिग्रहधारी-गृहस्थों को प्रतिबोध देकर सम्यक्त्व मूल द्वादश व्रतधारी बनाया। वे दोनों ही शान्ति के साथ श्रावक धर्म का पालन करके देवलोक में पहुँचे। देवलोक से तीर्थंकर वन्दना के लिये महाविदेह क्षेत्र में गये। वहाँ पर सीमंधर स्वामी और युगमंधर स्वामी की वन्दना की। उनके पास से धर्म सुनकर पूछा-"हमारे गुरु श्री अभयदेवसूरि जी कौन से भव में मोक्ष पधारेंगे?" दोनों तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा-"तीसरे भव में मुक्ति जायेंगे।" यह सुनकर वे दोनों देव बड़े प्रसन्न हुए और अपने गुरु श्री अभयदेवसूरि के पास जाकर वन्दना करके भगवान् की कही हुई बात सुनाई और वहाँ से वापिस लौटते समय उन्होंने इस अग्रिम गाथा का उच्चारण किया भणियं तित्थयरेहिं महाविदेहे भवंमि तइयंमि। तुम्हाण चेव गुरवो मुत्तिं सिग्धं गमिस्संति॥ [महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकरों ने यह बात कही है कि तुम्हारे गुरु तीसरे भव में शीघ्र ही मुक्ति को जायेंगे।] इस गाथा को स्वाध्याय करती हुई महाराज की एक साध्वी ने सुना। उसने आकर वह गाथा महाराज को सुनाई। महाराज ने कहा-"हमको पहले ही देव सुना गये।" तदनन्तर किसी समय वहाँ से सूरिजी विहार करके पाल्हऊदा नामक ग्राम में पधारे। वहाँ पर बहुत से श्रमणोपासक महाराज के भक्त थे। उनके कई जहाज समुद्र में चला करते थे। उन्होंने जहाजों को किराने के माल से लाद कर विदेश में भेजा था। वहाँ यात्री लोगों की जुबानी अफवाहकिंवदन्ती-सुनाई दी कि किराने से भरे हुए जहाज डूब गये। इस दुःखद बात को सुनकर श्रावक अत्यन्त उदास हो गए और इसी कारण वे उस दिन श्री अभयदेवसूरि जी की वन्दना करने को ठीक समय पर नहीं जा सके। श्री सूरिजी ने किसी कारणवश उन्हें याद किया, तब वे गये और वन्दना संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१७) _Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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