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करके बैठ गये। तब महाराज ने उनसे वन्दनार्थ आने में देर हो जाने का कारण पूछा। श्रावक बोले"महाराज! जहाजों के डूबने की किंवदन्ती सुनकर हम लोग बहुत दुःखित हो उठे हैं और यही कारण है कि आज हमारा वन्दन करने भी आना नहीं हुआ।" महाराज ने उनका यह कथन सुनकर जहाज सम्बन्धी कुछ बात जानने के लिए एकाग्र चित्त से क्षण भर कुछ ध्यान लगाया। फिर श्रावकों से कहा-"आप लोग इस विषय में चिन्तित न हों। कोई चिन्ता करने की बात नहीं है।" फिर दूसरे दिन किसी मनुष्य ने आकर समाचार सुनाये कि -"आप लोगों के जहाज सकुशल समुद्र पार पहुँच गये हैं।" इस शुभ समाचार को पाकर श्रावक लोग सब मिलकर महाराज के पास आये और निवेदन किया-"भगवन्! आपने जो आज्ञा की थी वह सत्य हुई। इस किराने के व्यापार में जितना लाभ होगा उसका आधा द्रव्य हम लोग सिद्धान्त की पुस्तकों की लिखाई में व्यय करेंगे।" "इससे आपकी मुक्ति होगी, यह सर्वथा युक्त है। आपका यह कर्त्तव्य ही है।" इस तरह महाराज ने उनकी सराहना प्रशंसा की। उन लोगों ने प्रोत्साहित होकर श्री अभयदेवसूरि विरचित सिद्धांत वृत्ति की अनेक पुस्तकें लिखवाई। वहाँ से विहार करके श्री सूरिजी वापस पाटण आ गये। उन दिनों चारों दिशाओं में यह प्रसिद्धि हो गई कि इस समय श्री अभयदेवसूरि जी ही सब सिद्धान्तों के पारंगत हैं। विशेष
जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर अभयदेवसूरि हुए। इनका जीवन वृत्तान्त हमें प्रभावकचरित पृ० १६१-१६६ में प्राप्त होता है। इसके अनुसार वि०सं० १०८0 के पश्चात् आचार्य जिनेश्वरसूरि विहार करते हुए मालवा प्रदेश की राजधानी धारानगरी पधारे। यहाँ के निवासी श्रेष्ठी महीधर के पुत्र अभयकुमार ने आचार्यश्री के व्याख्यान से प्रभावित होकर उनसे दीक्षा ग्रहण कर अभयदेव मुनि नाम प्राप्त किया। गुरु के पास ही अभयदेव ने स्वशास्त्र और परशास्त्र का विधिवत अध्ययन किया। आपकी योग्यता से प्रभावित होकर आचार्य जिनेश्वरसूरि ने इन्हें सूरि पद प्रदान किया और ये आचार्य अभयदेवसूरि के नाम से विख्यात हुए। स्थानांग सूत्र आदि नव अंग ग्रन्थों की टीका का रचनाकाल विक्रम संवत् ११२० से ११२८ के मध्य का है। टीकाओं का प्रारम्भ भी पाटण में हुआ था और पूर्णता भी पाटण में हुई थी।
पार्श्वनाथ की प्रतिमा पहले प्रकट हुई अथवा नौ अंगों पर वृत्ति पहले लिखी गयी, इस प्रश्न पर लम्बे समय से ही रचनाकारों में मतभेद चला आ रहा है। सुमतिगणि कृत गणधरसार्धशतकवृत्ति, उपा० जिनपाल द्वारा रचित युगप्रधानचार्य गुर्वावली, जिनप्रभसूरि कृत विविधतीर्थकल्प आदि के अनुसार पहले प्रतिमा प्रकट हुई फिर नौ अंगों पर टीका की रचना हुई। इसके विपरीत प्रभावकचरित, प्रबन्धचिन्तामणि एवं पुरातनप्रबन्धसंग्रह में पहले टीकाओं की रचना का और फिर पार्श्वनाथ की प्रतिमा के प्रकटीकरण होने की चर्चा है। वस्तुतः कौन का कार्य पहले हुआ इस पर विचार करना आवश्यक है।
टीकाओं की रचना में अहर्निश जागरण एवं रचना के प्रारम्भ होने से लेकर पूर्ण होने तक अतिउग्र आयम्बिल तप के सेवन से आचार्यश्री का शरीर रोगग्रस्त हो गया। साथ ही
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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