SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुर्जनों/विरोधियों के कुवाक्यों ने मन पर भी आघात पहुंचाया। इसी कारण वे अनशन करने को तैयार हो गये थे। यह जिनशासन का सौभाग्य ही था कि अनशन का पूर्वनिश्चित कार्यक्रम स्थगित हो गया और उसके स्थान पर उन्होंने दूसरा ही कार्य किया। यह कार्य था स्तम्भनपुर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा का प्रकटीकरण। चूँकि जनसामान्य में चमत्कारों के प्रति अधिक श्रद्धा रहती है और साहित्यसृजन केवल विद्वान् ही जान पाते हैं। इस दृष्टि से पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्राप्ति चमत्कारपूर्ण रूप से प्राप्त होने और उसके दर्शन से आचार्यश्री का रोग शान्त होने वाली बात जनसामान्य में पूर्व में स्थान प्राप्त कर सकी । वस्तुतः नवाङ्ग टीका का कार्य आचार्य ने पूर्व में ही किया था और उपरि उल्लिखित निरन्तर जागरण और लम्बे काल के आयम्बिल तप के कारण शरीर जर्जरित हो गया, उसी समय वे स्तम्भनक पधारे जहाँ प्रतिमा का चमत्कारिक रूप से प्रकटीकरण हुआ। क्षमाकल्याणोपाध्याय कृत पट्टावली के पृष्ठ २३ के अनुसार पार्श्वनाथ की प्रतिमा यथास्थान न मिलने पर अभयदेवसूरि ने जयतिहुअण स्तोत्र द्वारा प्रभु की स्तवना प्रारम्भ की। इस स्तोत्र का १६वाँ पद्य “फणिफणफारफुरन्त' का उच्चारण करने के साथ ही भूमि से स्तम्भन पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई। अभयदेवसूरि के विद्वान् शिष्यों में प्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्धमानसूरि, हरिभद्रसूरि, देवभद्रसरि, जिनवल्लभसूरि आदि का नाम उल्लेखनीय है। श्वेताम्बर परम्परा के पिछले सभी गच्छ एवं पक्ष के विद्वानों ने अत्यन्त आदर एवं सत्यनिष्ठा के साथ अभयदेवसूरि का स्मरण किया है और इनके वचनों को पूर्णतया आप्तवचन की कोटि में रखा है। अपने समकालीन विद्वत् समाज में भी इनका सर्वोच्च स्थान रहा। अभयदेवसूरि का निधन वि०सं० ११३८ के आसपास माना जाता है। नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि-परम्परा 1. अभयदेवसूरि 2. प्रसन्नचंद्रसूरि 3. देवभद्रसूरि 4. देवानन्दसूरि 5. विबुधप्रभसूरि 6. देवप्रभसूरि 7. पद्मप्रभसूरि आचार्य अभयदेवसूरि की परम्परा के आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि और श्री देवभद्रसूरि इन दोनों आचार्यों के विद्यागुरु आचार्य अभयदेवसूरि थे। इन दोनों का यत्किञ्चित प्राप्त उल्लेख पूर्व में ही आचार्य अभयदेव, आचार्य जिनवल्लभ और आचार्य जिनदत्तसूरि चरित्रों में आ चुका है। अवशिष्ट आचार्यों के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता और पद्मप्रभसूरि के पश्चात् यह परम्परा कहाँ तक चली, ज्ञात नहीं है। किन्तु आबू इत्यादि से प्राप्त मूर्ति लेखों के आधार पर यह निश्चित है कि साधु परम्परा १५वीं शती के पूर्वार्द्ध तक चलती रही है। परम्परा शब्द से यहाँ पर शिष्य प्रशिष्यादि क्रम भावि परम्परा नहीं, किन्तु आचार्यश्री संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१९) _Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy