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के समुदाय-वर्ति तत्काल व पश्चात् काल-भावि प्रभावशाली विद्वान आचार्यों की नामावली समझना चाहिए, क्योंकि प्रसन्नचन्द्राचार्य और देवभद्राचार्य का पारस्परिक गुरु शिष्य का सम्बन्ध नहीं है।
युगप्रधानाचार्य गुर्वावली एवं गणधरसार्द्धशतक वृत्ति आदि के कथनानुसार श्री प्रसन्नचन्द्राचार्य की दीक्षा तो वसतिमार्ग-प्रकाशक, खरतर-विरुद संप्रापक, सुविहित शिरोमणि आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि जी के कर-कमलों से हुई थी, परन्तु शिष्य थे श्री अभयदेवसूरि जी महाराज के और श्री देवभद्राचार्य शिष्य थे आO श्री जिनेश्वरसूरि जी के हस्तदीक्षित उपाध्याय श्री सुमति गणि के। जैसे कि स्वयं देवभद्राचार्य अपने रचित कथारत्नकोष की प्रशस्ति में लिखते हैं
ताण जिणचंदसूरी, सीसो सिरिअभयदेवसूरिवि। रवि-ससहरव्व पयड़ा, अहेसि सिय गुणमऊहेहिं ॥ ३॥ तेसिं अस्थि विणेओ, समत्थ-सत्थऽत्थपारपत्त मई। सूरी पसन्नचंो, न नामओ अत्थओ वि परं॥ ४॥ तस्सेव गेहिं सिरि सुमइ - वायगाणं विणेयलेसेहिं। ..
सिरिदेवभद्दसूरीहिं, एस रइसो कहाकोसो॥ ५॥ __ [उन (आचार्य श्री जिनेचरसूरि जी महाराज) के शिष्य आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी एवं श्री अभयदेवसूरि जी भी हुए, जो उज्ज्वल गुण रूप किरणों से सूर्य और चन्द्रमा की भाँति भूतल में प्रसिद्ध थे। उनके शिष्य समस्त शास्त्रों के अर्थ में पार प्राप्त मति (निपुण बुद्धि) वाले आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि हुए जो कि केवल नाममात्र से ही नहीं, किन्तु अर्थ से भी प्रसन्नचन्द्र (निर्मलचन्द्र तुल्य) ही थे। उन (प्रसन्नचन्द्राचार्य के चरण सेवक एवं वाचक श्री सुमति गणि के शिष्यलेश श्री देवभद्रसूरि ने इस कथा (रत्न) कोष की रचना की।]
इससे यह स्पष्टतया जाना जाता है कि उपरोक्त परम्परा नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि की शिष्य-प्रशिष्यादि क्रम-भावि परम्परा नहीं है। यदि इसे क्रम-भावि परम्परा मानी जाय तो श्री देवभद्रसूरि को आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि के शिष्य मानने चाहिए और ऐसा मानना स्वयं देवभद्राचार्य के ही कथन से विरुद्ध होता है। क्योंकि? कथारत्नकोष के ऊपर उल्लिखित अवतरण में स्वयं देवभद्राचार्य अपने को आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि के सेवक लिखते हैं, नहीं कि शिष्य । शिष्य तो वे अपने को वाचक श्री सुमति गणि के ही लिखते हैं, अतः इस परम्परा को गुरुशिष्यादि क्रम-भावि परम्परा न मान कर आचार्य श्री अभयदेवसूरि जी की परम्परा में हुए प्रभावशाली विद्वान आचार्यों की नामावली ही मानना उचित है।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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