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________________ आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि १३. उस समय में आशिका नगरी में कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि नाम के एक मठाधीश आचार्य रहते थे। उस नगरी में जितने श्रावकों के बालक थे, वे सब उनके पास मठ में पढ़ते थे। उसी आशिका में एक श्रावक पुत्र जिनवल्लभ नाम का था। उसका पिता उसे बचपन में ही छोडकर स्वर्ग सिधार गया था, अत: माता ने ही उसका पालन-पोषण किया था। जब उसकी आयु पढ़ने योग्य हुई, तब माता ने उसको अन्य बालकों के साथ पढ़ने के लिए मठ में भेजना शुरु किया। अन्य सभी सहपाठियों की अपेक्षा वह अधिक पाठ याद कर लेता था। एक दिन जब वह जिनवल्लभ मठ से पढ़कर घर जा रहा था तो मार्ग में उसको एक टीपना मिला, जिसमें सर्पाकर्षणी तथा सर्पमोक्षणी नामक दो विद्याएँ लिखी हुई थीं। उसमें बतायी हुई विधि के अनुसार जिनवल्लभ ने पहले पहली विद्या के मंत्रों का उच्चारण किया। उसके प्रभाव से सब दिशाओं से सर्प ही सर्प आने लगे, उन्हें देखकर विद्या के प्रभाव को जानकर वह जरा भी नहीं घबड़ाया और दूसरी सर्पमोक्षणी विद्या का यथाविधि उच्चारण करके उन आते हुए सो को वापस लौटा दिया। यह समाचार जब गुरु जिनेश्वरसूरि जी ने सुना तो उनका हृदय उस बालक पर आकर्षित होने लगा और वे जान गये कि यह बालक बड़ा गुणी है। तब उन्होंने किसी भी प्रकार से उसको अपने अधिकार में ले लेने का दृढ़ संकल्प किया। सूरि जी ने अनेक प्रलोभन देकर उस बालक को अपने वश में करके उसकी माता को मधुर वचनों से समझा बुझा कर पाँच सौ रुपये दिलाये और जिनवल्लभ को अपना शिष्य कर लिया। उसे छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक, ज्योतिष तथा लक्षणादि सब विद्याओं का अध्ययन कराया। किसी समय उन आचार्य श्री का ग्रामान्तर जाने का संयोग उपस्थित हुआ। जाते समय मठ आदि के संरक्षण का भार जिनवल्लभ को सौंप कर बोले-"सावधानी से कार्य करना। हम भी अपना कार्य सिद्ध करके शीघ्र ही वापस आते हैं।" शिष्य ने प्रार्थना की-"सब बराबर करूँगा, श्रीमान् निश्चिंत होकर पधारें और कार्य समाप्त करके शीघ्र ही वापस लौट आवें।" गुरुजी के चले जाने के बाद दूसरे दिन ही जिनवल्लभ ने सोचा, भण्डार में पुस्तकों की भरी हई पेटी धरी है। उसे खोलकर देखना चाहिए कि पुस्तकों में क्या-क्या लिखा है क्योंकि पुस्तकों से ही सब प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। यह विचार करके उसने पेटी खोलकर सिद्धान्त की एक पुस्तक निकाली। उसमें लिखा हुआ देखा-"साधु को गृहस्थों के घरों से ४२ दोषों से रहित भिक्षा-मधुकरी वृत्ति से लेकर संयम पालने के लिए देह निर्वाह करना चाहिए।" इस प्रकार के विचारों को देखकर उसने सोचा-"संयम और आचार ही मुक्ति में ले जाने वाला मार्ग है। हमारे वर्तमान आचार से तो हमें मुक्ति की प्राप्ति नितान्त दुर्लभ है।" इस प्रकार गंभीर वृत्ति से विचार करते हुए जिनवल्लभ जी ने पुस्तक को जैसी की तैसी यथास्थान रख दी और मठ के संचालन के कार्य में पूर्ववत् संलग्न हो गए। कुछ दिन बाद गुरु जी आ गये और मठ को पहले से सुव्यवस्थित देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उनकी प्रशंसा करने लगे कि-"यह बड़ा चतुर है। वास्तव में जैसा हमने सोचा है यह वैसा ही निकलेगा। किन्तु, इसने जैन सिद्धान्त के बिना सभी विद्याएँ पढ़ी हैं, अब इसे जैन सिद्धान्त का संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२१) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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