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अभ्यास कराना चाहिए और वह सिद्धान्त, विद्या इस समय अभयदेवसूरि जी के पास सुनते हैं। इसलिए इस जिनवल्लभ को उनके पास भेजकर सिद्धान्तों का ठीक ज्ञान प्राप्त कराना चाहिए और तदनन्तर इसको अपनी गद्दी पर बिठा देना चाहिए।" ऐसा निश्चय करके वाचनाचार्य बनाकर और भोजन आदि प्रबन्ध के लिए पाँच सौ मोहरें देकर तथा सेवा के लिए जिनशेखर नामक साधु के साथ जिनवल्लभ को सिद्धान्त ज्ञानार्थ श्री अभयदेवसूरि के पास भेज दिया। अणहिलपुर पाटण जाते हुए दोनों साधु मार्ग में आये मरुकोट में रात्रि रहे। वहाँ माणू श्रावक के बनाये जिन मन्दिर में प्रतिष्ठा की। वहाँ से चलकर पाटण पहुँचे और वहाँ लोगों से अभयदेवसूरि जी का स्थान पूछ कर उनकी वसति में पहुँचे। गुरु जी के दर्शन करके भक्ति-श्रद्धा के साथ उनकी वन्दना की। गुरु जी को सामुद्रिक चूड़ामणि का ज्ञान था। अत: इनको देखते ही शारीरिक लक्षणों से जान गए कि-यह कोई भव्य जीव है। सूरिजी ने पूछा-"तुम्हारा यहाँ आगमन किस प्रयोजन से हुआ है?" जिनवल्लभ ने उत्तर दिया-"भगवन् ! हमारे गुरु ने सिद्धान्तवाचन-रसास्वादन के लिए मकरन्द के लोभी भ्रमर के सदृश मुझ को श्रीमान् के चरण-कमलों में भेजा है।" इस उत्तर को सुनकर अभयदेवसूरि ने विचार किया"यद्यपि यह चैत्यवासी गुरु का शिष्य है, तथापि योग्य है। इसकी योग्यता, नम्रता और शिष्टता देखकर सिद्धान्त-वाचना देने को हृदय स्वतः चाहता है। शास्त्र में बतलाया है
मरिज्जा सह विज्जाए कालंमि आगए विउ।
अपत्तं च न वाइज्जा पत्तं च न विमाणए॥ [अवसान समय के आने पर विद्वान् मनुष्य अपनी विद्या के साथ भले ही मर जाये, परन्तु कुपात्र को शास्त्र-वाचना न देवे और पात्र के आने पर वाचना न देकर उसका अपमान न करे।]
इस प्रकार शास्त्रीय वाक्यों से पूर्वापर का विचार करके सूरिजी ने उससे कहा-" जिनवल्लभ! तुमने बहुत अच्छा किया जो सिद्धान्त-वाचना के लिए मेरे पास आये।" तदनन्तर अच्छा दिन देखकर महाराज ने उसको सिद्धान्त ग्रंथ पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। गुरुजी जिस समय सिद्धान्त-वाचना देते उस समय जिनवल्लभ बड़ा प्रसन्न होकर एकाग्र चित्त से सुधारस की तरह उपदेशामृत का पान करता था। उसकी ज्ञान-पिपासा और उपदेशामृत-ग्रहण करने की अद्भुत प्रतिभा को देखकर गुरुजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। आचार्यश्री ने प्रसन्न होकर इस प्रकार सिद्धान्त- वाचना देना प्रारम्भ किया कि थोड़े ही समय में वह परिपूर्ण हो गई।
१४. उन्हीं दिनों में कोई एक ज्योतिषी आचार्य का अनन्य भक्त हो गया। उसने महाराज से प्रार्थना की-"यदि आपका कोई योग्य शिष्य हो तो मुझे दीजिये। मैं उसको अच्छा ज्योतिषी बना दूंगा।" आचार्य ने उसका यह कथन सुनकर अपने योग्य शिष्य इस जिनवल्लभ गणि को ज्योतिष पढ़ाने के लिये उसके पास भेज दिया। ज्योतिषी ने बड़ी उदारता से अपनी योग्यता के अनुसार उसको ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान कराया। यथाविधि विद्याध्ययन पूर्ण कर लेने के अनन्तर जिनवल्लभ जी ने अपने आशिका नगरीस्थ दीक्षा गुरुजी के पास चले जाने की इच्छा की और वहाँ से विहार करने के
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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