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________________ लिए शुभ मुहूर्त निकाल कर विद्या गुरु श्री अभयदेवसूरि जी महाराज से जाने के लिए आज्ञा माँगने गये। गुरुजी ने जाने की आज्ञा देते हुए आदेश दिया-"मैंने सारे सिद्धान्त अपनी जानकारी के अनुसार तुम्हें पढ़ा दिये हैं। तुमको अपने जीवन में सिद्धान्त के अनुसार ही आचरण करना चाहिए। हे वत्स! शास्त्र के प्रतिकूल किसी भी प्रकार का व्यवहार मत करना।" जिनवल्लभ गणि ने कहा-"भगवन् ! श्रीमान् की आज्ञा के अनुसार ही सदा बर्ताव करूँगा।" गुरुजी की आज्ञा पाकर जिनवल्लभ जी शुभ दिन देख वहाँ से चलकर जिस नार्ग से पहले गये थे-उसी मार्ग से फिर मरुकोट आ पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने देव मन्दिर में सिद्धान्तों के अनुकूल एक विधि लिखी, जिससे अविधि चैत्य भी मुक्ति-साधक विधि-चैत्य बन सकता है। वह विधि यह है अत्रोत्सूत्रजनक्रमो न च न च स्नानं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि। जातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमि त्याज्ञात्रेयमनिश्चिते विधिकृते श्रीजैनचैत्यालये॥ [इस मन्दिर में उत्सूत्रभाषी मनुष्यों का आना-जाना व बर्ताव नहीं होगा। रात्रि में स्नात्र महोत्सव नहीं होना चाहिए। साधुओं का ममताभावअधिकार इस मन्दिर में नहीं रहना चाहिए। रात्रि के समय स्त्रियों का आना-जाना इस मन्दिर में नहीं होगा। ज्ञाति-जाति का दुराग्रह न होगा, यानि किसी जाति-ज्ञाति का आधिपत्य इस मन्दिर पर नहीं रहेगा और श्रावक लोग परस्पर ताम्बूल का देना-लेना व भक्षण करना इस मन्दिर में नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार की ये शास्त्रविहित आज्ञायें किसी की निश्रा रहित और विधिपूर्वक स्थापित इस जिन-मन्दिर में प्रवर्तित रहेगी। अभिप्राय यह था कि इस विधि का पालन करना चाहिए, जिससे धर्म-क्रिया मुक्ति का साधन बने।] . तदनन्तर अपने गुरु श्री जिनेश्वरसूरि जी के पास जाते हुए आशिका नगरी से तीन कोश दूरी पर माइयड़ नामक ग्राम में जाकर ठहरे। वहाँ एक पुरुष को हस्तलेख देकर गुरुजी के पास भेजा। उस पत्र में लिखा था-"आपकी कृपा से सुगुरु श्री अभयदेवसूरि जी से सिद्धान्त-वाचना ग्रहण करके मैं माइयड़ ग्राम में आया हूँ। आप कृपा करके मेरे से यहीं आकर मिलें।" पत्र को पढ़कर गुरुजी ने विचार किया कि-"जिनवल्लभ को यहाँ आना चाहिए था। हमको वहाँ बुलाने जैसा अनुचित कार्य उसने किस कारण किया।" अस्तु। दूसरे दिन गुरु जिनेश्वराचार्य अनेक नागरिकों के साथ अपने प्रिय शिष्य से मिलने के लिये पूर्वोक्त ग्राम में आये। जिनवल्लभ जी गुरु जी का स्वागत करने उनके सम्मुख आये और वन्दना की। कुशल-क्षेम पूछने पर जिनवल्लभ जी ने अपने अध्ययन कार्य का सारा वृतास्त कह सुनाया। गुरु के साथ में आये हुए कई एक ब्राह्मणों के प्रश्न करने पर उनका समाधान करने के लिए दुर्भिक्ष-सुभिक्ष-वर्षा सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में जिनवल्लभ जी ने ज्योतिष विद्या के बल से कई एक आश्चर्यकारी बातें बताईं, जिनको सुनकर गुरुजी भी आश्चर्य-चकित हो गए। तब गुरु ने जिनवल्लभ गणि से पूछा- "तुम अपने स्थान पर न आकर बीच में ही क्यों ठहर गये?" जिनवल्लभ जी ने कहा संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (२३) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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