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'भगवन् ! सुगुरु के मुख से जिनवचनामृत को पीकर विष के समान देवगृह - निवास को सेवन करने की इच्छा कैसे करूँ?" जिनेश्वराचार्य ने कहा - " मेरा विचार था कि तुम्हें अपनी गादी पर बिठला कर और गच्छ, मठ, मन्दिर, श्रावक आदि का सब कार्य भार तुम्हारे हाथ में सौंप कर फिर किसी सुयोग्य गुरु द्वारा वसतिमार्ग स्वीकार करूँगा।" जिनवल्लभ जी बोले - " यदि यही विचार है तो फिर देरी क्यों की जा रही है? क्योंकि विवेक का फल तो यही है कि योग्य बात को स्वीकार किया जाये और अनुचित का परित्याग किया जाये।" यह सुनकर गुरु ने कहा - " हम में ऐसी निःस्पृहता नहीं है कि जो मठ, मन्दिर, श्रावक, वाटिका आदि की संरक्षा का भार किसी योग्य उत्तराधिकारी पुरुष को दिये बिना ही सुयोग्य गुरु के पास जाकर वसतिमार्ग स्वीकार कर लें । अतः किसी योग्य पुरुष को मठादि का दायित्व देकर वसतिमार्ग स्वीकार करूँगा और तुम्हारी यही इच्छा हो तो अभी भले ही वसतिवास स्वीकार कर लो।" तब श्री जिनवल्लभ जी अपने दीक्षा गुरु श्री जिनेश्वरसूरि की सम्मति मिलने पर गुरु को वन्दन कर वहाँ से पीछे पुनः पाटण आ गये और श्री अभयदेवसूरि जी के चरणों में शीघ्र ही आकर भक्तिपूर्वक वन्दना की। उनके आने से श्री अभयदेवसूरि का हृदय आनन्द से उमड़ पड़ा और वे मन ही मन सोचने लगे कि - "हमने इसके विषय में जैसा विचार किया था, यह वैसा ही सिद्ध हुआ । यह मेरे पाट पर बैठने योग्य है । परन्तु यह चैत्यवासी आचार्य का दीक्षित है, इस कारण गच्छ के सब साधु लोग मेरे इस कार्य से सहमत नहीं होंगे।" यह सोचकर उन्होंने गच्छ के आधारभूत वर्धमानाचार्य को गुरु पद गच्छनायकत्व पर आसीन किया और जिनवल्लभ गणि को अपनी ओर से उपसम्पदा प्रदान कर उन्हें आज्ञा दी कि - "तुम हमारी आज्ञा से सब जगह विहार करो। " श्री अभयदेवसूरि जी ने एक समय प्रसन्नचन्द्राचार्य को एकान्त में बुलाकर कहा - " मेरे पाट पर अच्छा लग्न देखकर जिनवल्लभ गणि को स्थापित कर देना । " परन्तु दैवयोग से इस प्रस्ताव को कार्य रूप में परिणत करने का सुअवसर नहीं आया था कि प्रसन्नचन्द्रसूरि देवलोक चले गये । उन्होंने स्वर्गवास के पूर्व कपड़वंज में देवभद्राचार्य को पूर्वोक्त प्रस्ताव सुनाकर कहा कि- " मैं गुरुदेव की इस आज्ञा को पूर्ण नहीं कर सका हूँ । अत: तुम इस आदेश को कार्यरूप में जरूर लाना ।" देवभद्राचार्य ने यह बात सुनकर कहा - "जैसा समय- संयोग होगा, अवसर मिलने पर इस आज्ञा का पालन किया जायेगा। आप अपनी आत्मा को सन्तोष दीजिए।"
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१५. श्री अभयदेवसूरि के देवलोक पहुँच जाने के बाद वाचनाचार्थ जिनवल्लभ गणि कितने ही दिनों तक पाटण के आस-पास विहार करते रहे । परन्तु गुजरात के लोग, चैत्यवासी आचार्यों का अत्यधिक संपर्क होने के कारण अर्ध-विदग्ध थे । अतः इनमें प्रतिबोध-विधान की सफलता न देखकर महाराज का मन वहाँ रहने को नहीं चाहा। इसलिए अपने साथ दो अन्य साधुओं को लेकर शुभ शकुन देखकर भव्य जीवों को भगवद्भाषित धर्मविधि का उपदेश देने के लिए चित्रकूट (चित्तौड़) आदि देशों में विहार कर गये। उन देशों में अधिकतर चैत्यवासी साधुओं का प्रभाव तथा निवास था । जनता भी उन्हीं की अनुयायिनी थी। अधिक क्या कहें? अनेक ग्रामों में विहार करते हुये महाराज श्री चित्तौड़ पहुँचे। यद्यपि वहाँ पर विरोधी वर्ग ने जनता में महाराज के विरुद्ध बहुत बड़ा आन्दोलन खड़ा किया, तथापि वे लोग महाराज
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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