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________________ रचित अवन्तिसुकुमाल चौढालिया (वि०सं० १७५७), मांकण रास (वि०सं० १७५७), अभयकुमारादि पांचसाधु रास (१७५८), ज्ञानछत्तीसी (१७५८), कौतुकबत्तीसी (१७६१) आदि ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। जयसुन्दर और ज्ञानवल्लभ भी धर्मवर्धन के ही शिष्य थे। कान्हजी (कीर्तिसुन्दर) के शिष्यों-शान्तिसोम और सभारत्न द्वारा लिखी गयी विभिन्न ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ जैसलमेर ग्रन्थ भंडार में प्राप्त होती हैं। श्री अगरचन्द जी नाहटा के अनुसार १८वीं शती तक धर्मवर्धन की शिष्य परम्परा विद्यमान थी। जयसागर उपाध्याय और उनकी शिष्य परम्परा उपाध्याय जयसागर-आचार्य जिनराजसूरि से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। उनके शिष्य एवं प्रथम पट्टधर जिनवर्धनसूरि (जिनसे खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा अस्तित्व में आयी) आपके विद्यागुरु थे। वि०सं० १४७५ में जब दैवी प्रकोप के कारण जिनवर्धनसूरि के स्थान पर जिनभद्रसूरि को जिनराजसूरि के पट्ट पर स्थापित किया गया तो इन्हें अपने पक्ष में करने के लिये जिनभद्रसूरि ने इन्हें उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया। वि०सं० १५१५ आषाढ़ वदि १ को आबू स्थित खरतरवसही के लेखों से ज्ञात होता है कि जयसागर ओसवाल वंश के दरड़ागोत्रीय थे। इनके पिता का नाम आसराज व माता का नाम सोखू था। इनके संसारपक्षीय भ्राता माण्डलिक ने आबू स्थित खरतरवसही का निर्माण कराया और वि०सं० १५१५ आषाढ़ वदि १ को जिनचन्द्रसूरि के हाथों प्रतिष्ठा करायी। जयसागर उपाध्याय अपने समय के विशिष्ट विद्वान् थे। उनके द्वारा रची गयी विभिन्न रचनायें मिलती हैं। जो निम्नानुसार हैं : ___ मौलिक ग्रन्थ १. पर्वरत्नावली - रचनाकाल वि०सं० १४७८ २. विज्ञप्तित्रिवेणी - रचनाकाल वि०सं० १४८४ ३. पृथ्वीचन्द्रचरित्र - रचनाकाल वि०सं० १५०५ ____टीका ग्रन्थ ४. सन्देहदोहावलीलघुवृत्ति - रचनाकाल वि०सं० १४८५ ५. गुरुपारतंत्र्यलघुवृत्ति ६. उपसर्गहरस्तोत्रवृत्ति ७. भावारिवारणस्तोत्रवृत्ति ८. रघुवंशसर्गाधिकार ९. नेमिजिनस्तुतिटीका इसके अतिरिक्त इनके द्वारा बड़ी संख्या में रचित छोटी-छोटी छन्द, स्तुतियाँ, रास, वीनती, विज्ञप्ति, स्तव, स्तोत्र आदि प्राप्त होते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तार के लिये द्रष्टव्य-मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित विज्ञप्तित्रिवेणी की भूमिका एवं महो० विनयसागर द्वारा सम्पादित अरजिनस्तव की भूमिका। शिष्य समुदाय-जयसागर उपाध्याय के विभिन्न शिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। विज्ञप्तित्रिवेणी से ज्ञात होता है कि इनके प्रथम शिष्य मेघराज गणि थे। इनके द्वारा रचित हारचित्रबंध-स्तोत्र नामक (३४४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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