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जिनभद्रसूरिशाखा में ही वा० नयरंग, विनयविमल, राजसिंह नामक भी मुनि हो चुके हैं जिनके द्वारा रची गयी विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं।
साधुकीर्ति के शिष्य साधुसुन्दर भी बहुत अच्छे विद्वान् थे। इनके द्वारा रचित धातुरत्नाकर, क्रियाकल्पलताटीका (वि०सं० १६८०), उक्तिरत्नाकर आदि कई कृतियाँ मिलती हैं। साधुसुन्दर के शिष्य उदयकीर्ति द्वारा रचित पदव्यवस्था और पंचमीस्तोत्र उपलब्ध हैं। ___साधुकीर्ति के एक अन्य शिष्य विमलतिलक के शिष्य विमलकीर्ति भी अच्छे रचनाकार थे। इनके द्वारा रचित चन्द्रदूतकाव्य (वि०सं० १६८१), आवश्यक बालावबोध, जीवविचार-बालावबोध, जयतिहुअणबाला०, पक्खीसूत्र बाला०, दशवैकालिक बाला०, गणधरसार्धशतकटब्बा आदि अनेक कृतियाँ तथा बड़ी संख्या में स्तवन एवं सज्झाय आदि प्राप्त होते हैं।
इन्हीं विमलकीर्ति के शिष्य विजयहर्ष हुए जिनके शिष्य थे धर्मवर्धन। १९ वर्ष की लघु आयु में ही आपने श्रेणिकरास (१७१९) की रचना कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। आपने १३ वर्ष की अल्पायु में ही दीक्षा ग्रहण की थी और अपने गुरु विजयहर्ष के पास थोड़े समय में व्याकरण, काव्य, न्याय, जैनागम आदि में प्रवीणता प्राप्त कर ली। अपने गुरु के साथ इन्होंने अनेक ग्राम और नगरों में भ्रमण किया तथा शत्रुजय, आबू, केशरियाजी, लोद्रवा, जैसलमेर, शंखेश्वर, गौड़ीपार्श्वनाथ आदि विभिन्न तीर्थों की यात्रा की।
आपके विद्वत्ता से प्रभावित होकर गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि ने सं० १७४० में इन्हें उपाध्याय पद प्रदान किया। गच्छनायक के देहान्त के पश्चात् जिनसुखसूरि गच्छनायक बने, आपने उन्हें भी विद्याध्ययन कराया। जब तक वे जीवित रहे, उन्हीं के साथ विहार किया। वि०सं० १७७९ में जिनसुखसूरि के निधन के पश्चात् उनके पट्टधर जिनभक्तिसूरि हुए। उस समय उनकी आयु मात्र १० वर्ष की थी इस कारण गच्छ की सम्पूर्ण व्यवस्था भी धर्मवर्धन जी के हाथ रही।
आपकी विद्वत्ता और गुणों से प्रभावित होकर बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर आदि राज्यों के शासकों ने अपने-अपने यहाँ आपको सम्मानित किया। वि०सं० १७८३-८४ में बीकानेर में इनका निधन हुआ। रेलदादाजी में आपके निर्वाणस्थल पर छतरी बनी हुई है।
धर्मसिंह अपरनाम धर्मवर्धन। इनके द्वारा रचित श्रेणिकचौपाई (वि०सं० १७१९), अमरसेनवयरसेनचौपाई (वि०सं० १७२४), सुरसुन्दरीरास (वि०सं० १७३६), परमात्मप्रकाश हिन्दीटीका (वि०सं० १७६२) आदि प्रमुख कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त आप द्वारा रचित ३०० से अधिक रचनायें मिलती हैं जिन्हें श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा ने धर्मवर्द्धनग्रन्थावली के नाम से एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में सम्पादित कर उसे प्रकाशित किया है।
धर्मवर्धन के शिष्य ज्ञानतिलक थे जिनके द्वारा रचित सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति, संस्कृतविज्ञप्तिलेखद्वय तथा कुछ स्तवन आदि मिलते हैं। धर्मवर्धन के दूसरे शिष्य कान्हजी (कीर्तिसुन्दर) हुए जिनके द्वारा
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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