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की। आपके कर-कमलों से हैदराबाद (दक्षिण), मद्रास, फलौदी, जैतपुरा (अजमेर), मोहनवाड़ी (जयपुर) आदि अनेक स्थलों पर विभिन्न प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न हुईं। सांगानेर दादावाड़ी में आपके प्रयत्न से तीन श्रीपूज्यों का सम्मेलन हुआ जिससे आपकी दीर्घदर्शिता, औदार्य, सौजन्यादि गुणों का प्राकट्य हुआ। आपने अपना कोई शिष्य उत्तराधिकारी नहीं बनाया। कलकत्ता के जैन श्वेताम्बर पंचायती मन्दिर की सार्द्धशताब्दी में (सं० २०२१ मा०सु० ६) आप कलकत्ता पधारे थे। सं० २०४४ में जयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ।
* * * महोपाध्याय उदयचन्दजी उपनाम चांणोद गुरांसा : इनका जन्म संवत् १९३५ वैशाख सुदि ३ को बड़लूट (सिरोही राज्य) में हुआ था। ये पारिख पुरोहित थे। महोपाध्याय प्राणाचार्य राज्यवैद्य उम्मेददत्त जी इनके गुरु थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा यतिवर्य श्री जवाहरलाल जी के सान्निध्य में हुई थी। ये मण्डोवराशाखा के अनुयायी थे। तत्कालीन गच्छनायक श्री जिनचन्द्रसूरि ने इन्हें वि०सं० १९७२ में उपाध्याय पद प्रदान किया था। राजस्थान के प्रसिद्ध नाड़ी वैद्यों में इनका प्रमुख स्थान रहा है। जोधपुर राज्य के ये राज्यवैद्य थे और उस राज्य से इन्हें समय-समय पर विभिन्न सम्मान प्राप्त हुए थे। चांणोद इन्हें जागीर में प्राप्त हुआ था, इसी कारण ये चांणोद-गुरांसा कहलाते थे। ईस्वी सन् १९६८ में इनके हीरक जयन्ती के अवसर पर इनका अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुका है।
कोतवाल मोतीचन्द जी : इनका बचपन का मोतीचन्द था। वि०सं० १९४३ में जयपुर में जिनमुक्तिसूरि ने आपको दीक्षा प्रदान कर मेघानन्द नाम रखा किन्तु ये जीवनभर मोतीचन्द के नाम से ही जाने गये। आप अमृतउदय के पौत्र शिष्य और पं० दयासुन्दर के शिष्य थे, जो क्षेमशाखीय थे। स्वोपार्जित सम्पत्ति का सदुपयोग टोंक रेल्वे फाटक पर जिनेश्वरदेव का मन्दिर एवं दादाबाड़ी के निर्माण में किया। दिनांक १२-१२-१९८० ईस्वी को इनका स्वर्गवास हुआ।
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संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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