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ॐ दिड्मण्डलाचार्य शाखा
मूल भट्टारक परम्परागत आचार्य श्री जिनलाभसूरि जी के शिष्य उपाध्याय पदधारक श्री हीरधम जी जैन साहित्य के प्रखर विद्वान् थे । इनके शिष्य उ० कुशलचन्द्र गणि हुये और इन्हीं से यह परम्परा चली, यों यह परम्परा मण्डोवरा शाखा के अन्तर्गत है ।
१. कुशलचन्द्रसूरि २. राजसागरोपाध्याय ३. बालचन्द्राचार्य ४. नेमिचन्द्राचार्य ५. हीराचन्द्रसूरि
१. आचार्य कुशलचन्द्रसूरि
ये उपाध्याय हीरधर्म के शिष्य थे। इनका जन्म नाम कुशलचन्द्र था और दीक्षा सं० १८३५ वैशाख सुदि ८ को मौरसी में श्री जिनचन्द्रसूरि जी के कर कमलों से हुई । दीक्षा नाम कनकविजय था, पर प्रसिद्धि कुशलचन्द्र नाम से ही हुई । गुरु महाराज के साथ विचरते हुए सम्मेतशिखर महातीर्थ की यात्रा कर जब बनारस पहुँचे तो वहाँ ठहरने के लिए स्थान तक का अभाव था । बड़ी कठिनता से रामघाट ठहरे। वाराणसी में भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के च्यवन - जन्म - दीक्षा व केवलज्ञान आदि कल्याणक होने के कारण रामघाट में नूतन मन्दिर व उपाश्रय स्थापित करने का दृढ़ संकल्प किया।
वाराणसीय काशी नरेश की विद्वत्सभा के अध्यक्ष श्री काष्ठ जिल्ह्वा स्वामी आपके अगाध ज्ञान की प्रशंसा सुनकर मिलने आये और सन्तुष्ट होकर स्वामीजी ने काशी नरेश के सम्मुख प्रशंसा की । काशी नरेश ने भी अपनी सभा में बुला कर आपको सत्कृत किया | योग्यता और चमत्कार से प्रभावित होकर बहुत सी वस्तुएँ भेंट भी की।
आपने रामघाट पर मन्दिर का निर्माण कराया। पांचालदेशीय श्रावक से चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा तीन सौ रुपये देकर मुगलसराय से लाए; क्योंकि हृदय में प्रतिमा जी का संकल्प होने से अधिष्ठायक ने स्वप्न में सूचित कर दिया था । प्रतिमा जी नवनिर्मित जिनालय में विराजमान कर दी। भगवान् की चरण पादुका प्राप्ति से केवलज्ञान-स्थान का निर्णय हुआ एवं जन्म स्थान भेलूपुर में भी वटवृक्ष के नीचे भट्ट लोगों द्वारा अधिकृत चरण पादुकाएँ प्राप्त कर श्वेताम्बर समाज द्वारा तीर्थोद्धार किया गया। भदैनीघाट पर राजा वच्छराज नाहटा द्वारा जिनालय निर्माण कर सुपार्श्वनाथ कल्याणक तीर्थ प्रतिष्ठित हुआ। श्रेयांसनाथ भगवान् की जन्मभूमि सिंहपुरी सारनाथ से थोड़ी दूर हीरामनपुर के पास एवं चन्द्रावती में गंगातट पर चन्द्रप्रभ भगवान् की जन्मभूमि का जीर्णोद्धार कराया । बनारस के संघ ने आपको आचार्य पद प्रदान किया ।
१. इनकी दीक्षा सं० १८०४ फाल्गुन सुदि १ को कच्छ के भुजनगर में हुई। इनका मूलनाम हरषचन्द्र था ।
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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