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(२. उपाध्याय राजसागर गणि
ये हीरधर्मोपाध्याय के प्रशिष्य और श्री कुशलचन्द्रसूरि के शिष्य थे। इनकी दीक्षा सं० १८६१ मिगसिर सुदि २ को हुई थी। इनका नाम रूपचन्द्र था दीक्षा नाम राजसागर रखा और साथ ही कपूरचन्द्र की दीक्षा हुई जिनका नाम कर्पूरसागर रखा गया। सं० १८६७ में आपके हाथ से छः शुभ कार्य हुए। बनारस में चैत्र मास में जो बुढ़वा मंगल का मेला लगता है, उस समय आपने चमत्कार दिखा कर अनेक भक्तों को शासन प्रेमी बनाया। श्री कुशलचन्द्रसूरि पट्ट प्रशस्ति में उसका वर्णन पाया जाता है। सं० १८९७. वैशाख सुदि ३ को अनशन धारण कर आप स्वर्गवासी हुए। हीरधर्म गणि के शिष्य विनयरंग (विजौ) की दीक्षा सं० १८४२ में हुई तथा प्रशिष्य मेहरचंद की दीक्षा सं० १८७० में जयपुर में हुई जिनका दीक्षा नाम मेरुविशाल रखा गया था।
(३. उपाध्याय रूपचन्द्र गणि
ये उपाध्याय राजसागर जी के शिष्य थे। इनके तीन शिष्य हुए-१. बालचन्द्राचार्य २. मोहन मुनि ३. जिनमुक्तिसूरि । इन तीनों की शिक्षा-दीक्षा आचार्य जिनमहेन्द्रसूरि जी के सान्निध्य में हुई थी।
(४. आचार्य बालचन्द्राचार्य
इनका जन्म सं० १८९२ में हुआ था। जन्म नाम बालचन्द था। दीक्षा सं० १९०२ काशी में श्री जिनमहेन्द्रसूरि जी ने ही प्रदान कर विवेककीर्ति नाम रखा। श्री जिनमहेन्द्रसूरि के पट्टधर श्री जिनमुक्तिसूरि ने आपको दिङ्मण्डलाचार्य की उपाधि से विभूषित किया। सं० १९३९ में जिनमुक्तिसूरि के आदेश से फागुन वदि ७ को अयोध्या में प्रतिष्ठा करवाई। बिहार, काशी, कोशल, मारवाड़, गुजरात, कोंकण, कच्छ, सौराष्ट्र, मालव और दक्षिण देश में विचरण कर शासन प्रभावना करते हुए अनेकों को शासन प्रेमी बनाया। नासिक, जामनगर और जुन्नेर में चमत्कार दिखा कर संघ के कष्टों का निवारण कर महती धर्म प्रभावना की।
त्रिस्तुतिक गच्छ प्रवर्तक आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि जी और तपागच्छीय विद्वान् झवेरसागर जी के मध्य में "चतुर्थ स्तुति" के सम्बन्ध में जो शास्त्रार्थ हुआ था, उस शास्त्रार्थ के निर्णायकों में आ० बालचन्द्रसूरि और खरतरगच्छीय आबूतीर्थोद्धारक श्री ऋद्धिसागर जी थे। इसी प्रसंग पर निर्मित ग्रंथ निर्णयप्रभाकर उपलब्ध है। राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द आपके उपासक थे। गुणचन्द्र और ज्ञानचन्द्र नाम के दो विद्वान् शिष्य थे। आपकी उपस्थिति में ही उनका देहावसान हो गया था।
अन्तिम अवस्था में तीन दिन का अनशन कर सं० १९६२ वैशाख सुदि ११ के दिन स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गये।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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