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५. आचार्य नेमिचन्द्रसूरि
आपकी दीक्षा सं० १९६३ पौष कृष्णा १४ मंगलवार को जयपुर में आचार्य जिनचन्द्रसूरि के हाथ से हुई । नेमिविमल दीक्षा नाम रखा गया । सं० १९६३ ज्येष्ठ सुदि ११ शुक्रवार को अष्टाह्निका महोत्सव के साथ आचार्य जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको बालचन्द्राचार्य का पट्टधर घोषित कर दिड्मण्डलाचार्य की उपाधि प्रदान की। आप बड़े ही शान्त स्वभावी थे और आपने अपने जीवन में कभी भी नूतन वस्त्र धारण नहीं किया था (नव्यं च वस्त्रमसकौ न कदापि दध्रे ) । अनेक देशों में विचरण कर अन्तिमावस्था में काशीवास स्वीकार कर लिया था । मन्दिर का जीर्णोद्धार भी आपने ही कराया था। अपने पट्ट पर अपने योग्य शिष्य हीराचन्द जी को स्थापित कर सं० १९९८ आश्विन कृष्णा द्वितीया को अनशनपूर्वक देवगति को प्राप्त हुए ।
कच्छ निवासी श्रेष्ठ धारसी भाई सोमचन्द्र ने आप ही के उपदेश से सिंहपुरी तीर्थ का जीर्णोद्धार
कराया था।
( आचार्य श्री हीराचन्द्रसूरि
सं० १९९८ माघ सुदि २ को जयपुर में श्रीपूज्य आचार्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरि जी ने आपको दिङ्मण्डलाचार्य पद से सुशोभित किया। इनका पदोत्सव सं० २००० वैशाख सुदि १३ को वाराणसीय संघ ने किया था । राजा शिवप्रसाद "सितारे हिंद" के पौत्र राजा साहब सत्यानंदसिंह जी ने आपका तिलक किया था । आपका जीवन बड़ा वैराग्यमय था । विद्वत् परिषद् ने आपको विद्यालंकार पद दिया था । ५० वर्ष की आयु में आचार्य पद प्राप्त करके भी आपने प्राचीन तीर्थों के जीर्णोद्धार कार्य में अपने को अन्तिम घड़ी तक पूर्णतया संलग्न रखा । सन् १९६६ में आप का दुःखद स्वर्गवास हुआ। आपने सारा कोष तीर्थोद्धार में लगाया, आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी में दिया पर अपने शरीर पर कभी खर्च नहीं किया ।
निकटस्थ गाँव में देवी के मन्दिर में हजारों बकरों का बलिदान होता था जिसे आपने उपदेश देकर बंद कराया। स्वयं देवी के हाथ लगाकर सारा अनिष्ट ( अपना बलिदान देकर) अपने ऊपर लेना स्वीकार किया तब बलिदान बंद हुआ।
स्व० यतिवर्य मणिचन्द्र जी ने २८९ श्लोक परिमित श्री कुशलचन्द्रसूरि पट्ट प्रशस्ति में इस तीर्थ रक्षक शाखा का इतिहास लिखा है । मणिचन्द्र जी छाजेड़ गोत्रीय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्नातक थे ।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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