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खरतरगच्छ की उपशाखाओं का इतिहास - २
खरतरगच्छ की मुख्य परम्परा में ४ उपशाखायें निरन्तर प्रवर्धमान रहीं जिनका क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं होता । तद्तद् परम्परा के साहित्यकारों द्वारा जो यत्किञ्चित् उल्लेख प्राप्त होते हैं उसी के आधार पर इनका परिचय प्रस्तुत है
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१. श्री क्षेमकीर्ति उपशाखा
तृतीय दादागुरु आचार्य जिनकुशलसूरि के शिष्य विनयप्रभ उपाध्याय से एक पृथक् साधु परम्परा चली जो एक स्वतंत्र शाखा न होकर मुख्य परम्परा की आज्ञानुवर्ती रही। विनयप्रभ उपाध्याय के शिष्य विजयतिलक उपाध्याय हुए। उपा० क्षेमकीर्ति इन्हीं के शिष्य थे । प्रचलित मान्यतानुसार इन्होंने एक साथ ५०० धावड़ी (बाराती) लोगों को दीक्षा दी थी इसीलिये यह परम्परा क्षेमकीर्ति या क्षेमधाड़ शाखा के नाम से जानी जाती है। अपने उदय से लेकर २०वीं शताब्दी के तीसरे दशक तक यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से पहले साधुओं के रूप में और बाद में वही यतियों के रूप में चलती रही। इस शाखा में गीतार्थ विद्वानों की लम्बी और विशाल परम्परा रही है। इसमें अनेक दिग्गज विद्वान् एवं साहित्यकार हुए हैं जिनमें से कुछ के नामोल्लेख इस प्रकार हैं :- उपाध्याय तपोरत्न, महोपाध्याय जयसोम, महोपाध्याय गुणविनय, मतिकीर्ति, उपाध्याय श्रीसार, वा० सहजकीर्ति, विनयमेरु, महाकवि जिनहर्ष, लाभवर्धन, उपाध्याय रामविजय, उ० लक्ष्मीवल्लभ, भुवनकीर्ति, अमरसिन्धुर, महोपाध्याय ऋद्धिसार (रामलाल) आदि।
क्षेमकीर्ति के शिष्य क्षेमहंस द्वारा रचित आचारांगदीपिका, वृत्तरत्नाकर टिप्पण- ये दो कृतियाँ मिलती हैं। क्षेमहंस के शिष्य सोमध्वज हुए । यद्यपि इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती किन्तु इनके शिष्य क्षेमराज द्वारा रचित फलवर्धिकापार्श्वनाथरास, श्रावकाचारचौपाई (वि०स० १५४६), चारित्रमनोरथमाला, इषुकारीराजाचौपाई, मंडपाचलचैत्यपरिपाटी आदि विभिन्न कृतियां मिलती हैं।
क्षेमराज के प्रशिष्य एवं प्रमोदमाणिक्य के शिष्य महोपाध्याय जयसोम भी सुप्रसिद्ध रचनाकार हुए । उनके द्वारा रचित कई कृतियाँ मिलती हैं यथा - इर्यापिथिकीषट्त्रिंशिकास्वोपज्ञवृत्तिसह (वि०सं० १६४०-४१), पौषधषट्त्रिंशिका स्वोपज्ञ वृत्तिसह (वि०सं० १६४३), स्थापना षट्त्रिंशिका, अष्टोत्तरीस्नात्र विधि (वि०सं० १६४५), कर्मचन्द्र वंश प्रबन्ध आदि ।
महो० जयसोम के शिष्य महोपाध्याय गुणविनय हुए जिनके द्वारा रचित खण्डप्रशस्तिवृत्ति (वि०सं० १६४६), नलदमयन्तीकथाचम्पू टीका (वि०सं० १६५७), कर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध टीका, धन्नारास, कयवन्नारास आदि विभिन्न रचनायें उपलब्ध हैं ।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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