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को धूलि-धूसरित किया जाए।' इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर वे गुजरात के पाटण नगर अणहिलपुर पत्तन पहुँचे, जहाँ उन्हें रहने को 'स्थान न मिला' न खाने को 'आहार-पानी'। राजपुरोहित सोमेश्वर ने जिनेश्वर की वाग्मिता, वैदुष्य, चारों वेदों पर आधिपत्य/अधिकार देखकर उन्हें अपने आवास में ठहरने को स्थान दिया और भोजन-पानी की व्यवस्था की।
चैत्यवासियों को आचार-सम्पन्न साधुओं का नगर प्रवेश और राज पुरोहित द्वारा स्थान देना काँटे की तरह खटकने लगा और उन्होंने अनेक प्रकार के षड्यन्त्र रचकर उनको गुजरात की सीमा से बाहर निकालने का प्रयत्न भी किया। राज-पुरोहित सोमेश्वर द्वारा राजा दुर्लभराज को समझाने पर शास्त्रार्थ का समय निश्चित किया गया। चैत्यवासियों के प्रमुख आचार्य सूराचार्य आदि शास्त्रार्थ के लिए पंचासरा पार्श्वनाथ में आए। महाराजा दुर्लभराज ने इस सभा की अध्यक्षता ग्रहण की। इधर से वर्धमानसूरि भी जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के साथ सभा-स्थल पर पहुँचे। राजा ने दोनों का सम्मान किया। वर्धमानसूरि की नि:संगता और साधुत्व से दुर्लभराज यह सोचकर प्रसन्न भी हुए कि ये वास्तव में विशुद्ध आचार-पालक साधुगण हैं, षड्यंत्रकारी गुप्तचर नहीं।
शास्त्रार्थ का विषय था - साधुजनों का आचार कैसा हो ?
इधर चैत्यवासियों की ओर से शास्त्रार्थ के लिए सूराचार्य को अधिकृत किया गया और वर्धमानसूरि ने अपनी ओर से जिनेश्वसूरि को अधिकार प्रदान किया। जिनेश्वरसूरि ने आगम ग्रंथों - दशवैकालिक, आचारांग आदि शास्त्रों के आधार से अप्रतिबद्धविहारी अप्रमत्त साधुजनों के आचार-विचार को प्रतिष्ठित किया। आगमिक उल्लेखों के सामने चैत्यवासी आचार्य निरुत्तर हो गये। विजयपताका वर्धमानसूरि को प्राप्त हुई। कहा जाता है कि महाराजा दुर्लभराज ने 'आपका पक्ष खरा है, सत्य है' इस विरुद से सम्मानित किया। इस विजय के कारण समस्त गुर्जर-धरा पर लगे राजकीय प्रतिबन्ध समाप्त हो गये और सुविहित साधु अपनी श्रमणचर्या का पालन करते हुए सुखपूर्वक विचरण करने लगे। वसतिवास प्रारम्भ हुआ। महाराजा दुर्लभराज के मुख से विजय सूचक 'खरा' शब्द ही 'खरतरगच्छ' का आविर्भावक बना।
कई विद्वान् परम्पराग्रह इत्यादि कारणों से कुछ प्रश्न खड़े करते हैं१. महाराजा दुर्लभराज के समक्ष शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं। २. प्रभावकचरित्रकार प्रभाचन्द्रसूरि प्रभावकचरित के अन्तर्गत सूराचार्य चरित्र में इस शास्त्रार्थ का उल्लेख
भी नहीं करते हैं। ३. खरतरगच्छ पट्टावलियों में इस शास्त्रार्थ का जो सम्वत् दिया है, वह भ्रामक है। ४. जिनेश्वरसूरि के शिष्यों ने विजयसूचक कहीं 'खरतर' शब्द का उल्लेख नहीं किया।
इन प्रश्रों का समाधान संक्षिप्त पद्धति से प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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स्वकथ्य
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