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समूह) को राग या द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद-प्रायश्चित्त होता है।' इन वेश विडम्बकों के कार्यकलापों और गर्हित जीवन को देखते हुए पुन: आचार्य कहते हैं- 'जिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं अधिक श्रेयस्कर है।'
उपालम्भपूर्वक इन कठोर भर्त्सनाओं का इस चैत्यवास समाज पर कुछ असर पड़ा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। किन्तु यह विषवल्लरी निरन्तर वेग के साथ बढ़ती रही और ११वीं शताब्दी में इनका विकृत स्वरूप राज्यमान्य भी हो गया। इस समय तो वे राजकुमारों को युद्ध का शिक्षण भी देने लगे थे। यहीं तक नहीं अपितु गुजरात में राजाओं के द्वारा यह आदेश पत्र भी निकलवा दिया था कि 'गुर्जर धरा की सीमा पर कोई भी संविग्न आचारशील क्रियाशील सुविहित साधु प्रवेश भी न कर सकें।' भूल से कोई सुविहित साधु सीमा में प्रवेश भी कर जाए तो उन्हें राज्यादेश से निष्कासित कर दिया जाता। राज्यादेश प्राप्त होने के कारण ये चैत्यवासी आचार्यगण निरंकुश होकर स्वच्छंद आचरण करने लगे थे
और स्वनिर्मित ग्रंथों के द्वारा स्वहित-आचार की पुष्टि भी करते थे। इतना ही नहीं यदि सुविहित आचारसम्पन्न साधु उस सीमा में प्रवेश कर जाता तो उन्हें भोजन, पानी (आहार, पानी) और रहने को स्थान भी नहीं दिया जाता। यदि कोई इन्हें आहार, पानी और स्थान देता तो वह दण्डनीय अपराधी होता।
वैसे तो यह चैत्यवास सारे उत्तर भारत में व्याप्त था किन्तु इसका गढ़ गुजरात ही माना जाता था। मेदपाट (मेवाड़) भी इससे अछूता न था। यहाँ भी आचार-सम्पन्न साधुओं को भोजन, पानी और स्थान नहीं मिलता था। शास्त्रार्थ-विजय
वर्धमानसूरि चैत्यवासी आचार्य जिनचन्द्र के शिष्य थे। ये जिनचन्द्राचार्य चौरासी स्थानों के अधिपति/मठपति थे। वर्धमान सिद्धान्तों की वाचना को ग्रहण करते हुए जिन मंदिर/प्रतिमा की चौरासी आशातनाओं को पढ़कर चैत्यवास से विरक्त हो गये और गुरु से अनुमति लेकर श्री उद्योतनसूरि के समीप सम्यक् प्रकार से आगम तत्त्वों की जानकारी प्राप्त कर उनके पास उप-सम्पदा ग्रहण की। उद्योतनसूरि ने उन्हें पूर्णतयः मेधा-सम्पन्न और योग्य जानकर आचार्य पद पर स्थापित किया।
वर्धमानसूरि ने वेद-विद्या सम्पन्न श्रीधर और श्रीपति को अपना शिष्य बनाया। जिनेश्वर और बुद्धिसागर नाम रखा और क्रमश: इनको आचार्य पद भी प्रदान किया। अन्य अनेक शिष्यों को भी दीक्षित किया।
वर्धमानसूरि चैत्यवास त्याग कर सुविहित बने थे अतः चैत्यवास शल्य की तरह उनके हृदय में सदा खटकता रहता था। जब वे दृष्टिपात करते थे तो सारा देश चैत्यवासमय दृष्टिगोचर होता था। गुजरात में चैत्यवासियों की दुर्दम्य अधर्म लीला देखकर वे सदा यही चाहते थे कि 'गुजरात से चैत्यवास
स्वकथ्य
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