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विकृतियों को संचित करके खाते हैं, सूर्य प्रमाण भोजी होते हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं, न तो साधु- समूह ( मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं । '
फिर ये करते क्या हैं? आचार्य लिखते हैं- 'सवारी में घूमते हैं, अकारण कटि-वस्त्र बाँधते हैं और सारी रात निश्चेष्ट होकर सोते रहते हैं। न तो आते-जाते समय प्रमार्जन करते हैं, न अपनी उपधि (सामग्री) का प्रतिलेखन करते हैं और न स्वाध्याय ही करते हैं । '
'अनैषणीय पुष्प, फल और पेय ग्रहण करते हैं। भोज - समारोहों में जाकर सरस आहार ग्रहण करते हैं। जिन - प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं । उच्चाटन आदि कर्म करते हैं । नित्य दिन में दो बार भोजन करते हैं तथा लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं । विपुल मात्रा में दुकूल आदि वस्त्र, बिस्तर, जूते, वाहन आदि रखते हैं। स्त्रियों के समक्ष गीत गाते हैं। आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। लोक-प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण धारण करते हैं। चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य आरम्भ करवाते हैं, जिन - मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सुवर्ण रखते हैं, नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं । मृतक - कृत्य निमित्त जिन - पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन - दान ( चढावा) करवाते हैं। धन प्राप्ति के लिये गृहस्थों के समक्ष अंग - सूत्र आदि का प्रवचन करते हैं। अपने हीनाचारी मृत - गुरु के निमित्त नंदिकर्म, बलिकर्म आदि करते हैं। पाट-महोत्सव रचाते हैं । व्याख्यान में महिलाओं से अपना गुणगान करवाते हैं । यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और आर्यिकाएँ केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं। इस प्रकार जिन - आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। ये व्याख्यान करके गृहस्थों से धन की याचना करते हैं । ये तो ज्ञान के भी विक्रेता हैं। ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले द्रव्य-संग्राहक, उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्वपरायण न तो मुनि कहे जा सकते हैं और न आचार्य ही हैं। ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो कीर्ति होती है न निर्जरा ही, इसके विपरीत शरीर को मात्र कष्ट और कर्मबन्धन होता है । '
ऐसे वेशधारियों/शिथिलाचारियों को फटकारते हुए पुनः वे कहते हैं - 'यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके भी शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ- वेश क्यों नहीं धारण कर लेते हो? अरे, गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, किन्तु मुनि - वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे । '
शास्त्र - विरुद्ध आचरण करने वाले को अपूजनीय और अवन्दनीय मानते हुए आचार्य हरिभद्र आक्रोश भरे शब्दों में पुन: कहते हैं - 'ऐसे दुश्शील, साधु-पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार करता है, क्या वह महापाप नहीं है ? अरे, इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी मोक्ष - मार्ग के वैरी, आज्ञा भ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो । अरे, देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो । अरे, इन अधर्म और अनीति के पोषक, अनाचार का सेवन करने वाले साधुता के चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे ( दुराचारियों के
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