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________________ तपागच्छ एवं उसकी शाखाएँ और उप-शाखाएँ, क्रमांक ४२. नागपुरी तपा गच्छ, क्रमांक ६०. कडवो पंथ मत, ६१. बीज गच्छ (विजय गच्छ) ६४. पायचंद (पार्श्वचन्द्र गच्छ)। चौरासी गच्छों के नामों में कई स्वतंत्र गच्छ हैं और कई उनकी शाखा प्रशाखाएँ हैं। जैसे - पौर्णमासी से सार्द्धपौर्णमासी, चन्द्रगच्छ से राजगच्छ, उसी से धर्मघोषगच्छ, प्रश्रवाहनकुल से हर्षपुरीय और उससे मलधारी और उसी से विजयगच्छ आदि। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस किसी शताब्दी में चौरासी संख्यात्मक गच्छों की कल्पना उद्भूत हुई थी, उस समय में विद्यमान/प्रचलित गच्छों के नामों को, शाखा-प्रशाखाओं को सम्मिलित कर चौरासी की संख्या पूर्ण की गई हो। चैत्यवास भगवान् महावीर के शासन में साध्वाचार का विशुद्ध पालन करने के लिए उत्सर्ग मार्ग का अवलम्बन ही मुख्य आधार माना है। कुछ विशिष्ट कारणों से शासन की रक्षा, धर्म-प्रचार, राजाओं को प्रतिबोध और काल की परिस्थितियों को समक्ष रखते हुए अपवाद मार्ग को भी स्वीकार किया गया। अपवाद मार्ग को अंगीकार करने पर प्रायश्चित्त का विधान भी किया गया है। काल के प्रभाव से उत्सर्ग मार्ग धीमे-धीमे कैंसर की तरह अपवाद के रूप में परिणत होता गया। मानव सुविधावादी है, तनिक भी सुविधा मिलने पर फिसलन की ओर आकृष्ट हो जाता है और उस मार्ग पर घिसटता हुआ चला जाता है। आर्य सुहस्तिसूरि सम्प्रति राजा को प्रतिबोध देने के कारण उसके निकट सम्पर्क में आए। इधर बिहार में भीषण दुष्काल भी पड़े। इन कारणों से सम्भव है कुछ अपवाद भी स्वीकार किये गये हों, इधर आर्य महागिरि जैसे उत्कृष्ट संयमधारी ने पृथक् होकर जिनकल्पीमार्ग स्वीकार किया। सम्भवतः शिथिलता का यह प्रथम चरण हो। वज्रस्वामी के आकाश-गमन से पुष्प लाने आदि कथानकों से भी इस प्रकार के कुछ बीज प्राप्त होते हैं। यही शिथिलता क्रमशः पनपती हुई, सुविधावाद की ओर बढ़ती हुई ८वीं शताब्दी में चैत्यवास के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई थी। कुछ कथानकों के अनुसार आचार्य हरिभद्रसूरि भी चैत्यवासी आचार्य के शिष्य थे, किन्तु वे इस परम्परा से विमुख हो कर विशुद्धाचार की ओर अग्रसर हो गये। उनके हृदय में चैत्यवास शूल की तरह खटकता रहा। यही कारण है कि उन्होंने अपने "संबोधप्रकरण' में हार्दिक रुदन करते हुए चैत्यवासियों की शिथिलता का जो चित्रण किया है, वह द्रष्टव्य है। _ 'ये मुनि-वेशधारी तथाकथित श्रमण को आवास देने वालों के यहाँ या राजा के यहाँ भोजन करते हैं, बिना कारण ही अपने लिए लाए गए भोजन को स्वीकार करते हैं, भिक्षाचर्या नहीं करते हैं, आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमण-जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं, कौतुक कर्म, भूत-कर्म, भविष्य-फल एवं निमित्त-शास्त्र के माध्यम से धन-संचय करते हैं, ये घृत-मक्खन आदि स्वकथ्य (२५) ___Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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