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________________ १. युगप्रधान जिनदत्तसूरि (समय ११३७ से १२११ तक) स्वप्रणीत गणधरसार्द्धशतक गाथा (६४ से ६८), सुगुरुपारतंत्र्यस्तव गाथा (९ से ११) और सुगुरुगुणस्तव सप्ततिका (गाथा ४९ से ५१) में स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि अणहिलपुर पाटण में महाराजा दुर्लभराज की राज्यसभा में साध्वाचार को लेकर शास्त्रार्थ हुआ और इस विजय के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण गुर्जर धरा में वसतिवास का प्रचार हुआ। श्री सुमतिगणि ने गणधरसार्द्धशतक बृहद्वृत्ति में इन श्लोकों की व्याख्या करते हुए शास्त्रार्थ और विजय का पूर्ण वर्णन दिया है। श्री जिनपालोपाध्याय ने खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली (रचना सम्वत् १३०५) में भी इस घटना का सांगोपांग वर्णन दिया है। श्री प्रभाचन्द्रसूरि भी प्रभावक चरित के अन्तर्गत अभयदेवसूरि चरित में (पद्य ४४ से ८९ तक) इस शास्त्रार्थ घटना का सांगोपांग उल्लेख करते हैं कि अणहिलपुर पत्तन में दुर्लभराजा की सभा में शास्त्रार्थ हुआ था और इस विजय के बाद समस्त गुजरात में वसतिवास की परम्परा स्थापित हुई थी। __ अतः स्पष्ट हो जाता है कि दुर्लभराज की राजसभा में यह शास्त्रार्थ अवश्य हुआ था। २. प्रभाचन्द्राचार्य का प्रभावकचरित के अन्तर्गत सूराचार्य चरित में इस शास्त्रार्थ की घटना का कहीं उल्लेख नहीं है। इस प्रसंग में ये मौन ही रहते हैं। प्रभावकचरित की रचना वि०सं० १३३४ में हुई है। वे इस सूराचार्य चरित में इस घटना का उल्लेख नहीं करते। इस सम्बन्ध में पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री मुनि 'जिनविजयजी' कथाकोश प्रकरण की प्रस्तावना पृष्ठ ४१ में मेरे मत का समर्थन करते हुए लिखते हैं 'यों तो प्रभावकचरित में सूराचार्य के चरित का वर्णन करने वाला एक स्वतंत्र और विस्तृत प्रबन्ध ही ग्रथित है जिसमें उनके चरित की बहुत सी घटनाओं का बहुत कुछ ऐतिहासिक तथ्यपूर्ण वर्णन किया गया है; लेकिन उसमें कहीं भी उनका जिनेश्वर के साथ इस प्रकार के वाद-विवाद में उतरने का कोई प्रसंग वर्णित नहीं है। परंतु हमको इस विषय में उक्त प्रबन्धकारोंका कथन विशेष तथ्यभूत लगता है। प्रभावकचरित के वर्णन से यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियों के एक बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशाली अग्रणी थे। ये पंचासर पार्श्वनाथ के चैत्य के मुख्य अधिष्ठाता थे। स्वभाव से बड़े उदग्र और वाद-विवाद प्रिय थे। अतः शास्त्राधार की दष्टि से यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्य का पक्ष सर्वथा सत्यमय था अतः उनके विपक्ष का उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था। इसलिये इसमें कोई सन्देह नहीं कि राजसभा में चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित हो कर जिनेश्वर का पक्ष राजसम्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्ष के नेता का मानभंग होना अपरिहार्य बना। इसलिये, संभव है कि प्रभावकचरितकार को सूराचार्य के इस मानभंग का, उनके चरित में कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने इस प्रसंग को उक्त रूप में आलेखित कर, अपना मौनभाव ही प्रकट किया हो।' स्वकथ्य (२९) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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