________________
अतः यह ध्रुव सत्य है कि आचार्य जिनेश्वर का सूराचार्य के साथ दुर्लभराज की राज्यसभा में शास्त्रार्थ हुआ और उसमें सूराचार्य पराजित हुए ।
३. सम्वत् भ्रामक है
अर्वाचीन पट्टावलिकारों ने पट्टावलियों में कहीं १०८० सम्वत् का उल्लेख किया है तो किसी ने १०२४ का। यह वस्तुतः श्रवण परम्परा पर आधारित है। इसको आधार मानकर कुछ लोग समय के विषय में निरर्थक ही विवाद उपस्थित करते हैं । इस सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त है कि युगप्रधान जिनदत्तसूरि, जिनपालोपाध्याय, सुमतिगणि, प्रभावकचरितकार आदि मौन हैं। इसका कारण भी यही है कि सब ही प्रबन्धकारों ने जनश्रुति, गीतार्थश्रुति के आधार से प्रबन्ध लिखे हैं और वे भी सब १०० और २५० वर्ष के मध्य काल में । वस्तुतः समग्र लेखकों ने संवत् के सम्बन्ध में मौनधारण कर ऐतिह्यता की रक्षा की है अन्यथा संवत् के उल्लेख में असावधानी होना सहज संभाव्य था । महाराजा दुर्लभराज का राज्यकाल १०६६ से १०७८ तक का माना जाता है, उसी के मध्य में यह घटना हुई है। जिनेश्वरसूरि के शिष्यों ने विजयसूचक कहीं 'खरतर' शब्द का उल्लेख नहीं किया
४.
वर्धमानसूर और जिनेश्वरसूरि ने महाराजा दुर्लभराज के मुख से निकले हुए 'आपका मार्ग खरा . है', इस विरुद को विशेष महत्त्व नहीं दिया और उसके स्थान पर उनके समय से सुविहित शब्द का प्रचलन हुआ । सुविहित अर्थात् भगवान् महावीर प्रतिपादित आगम ग्रंथ सम्मत श्रमणाचार का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाले होता है । इस शब्द का जिनेश्वरसूरि के पूर्व साधुजनों / आचार्यों के लिए प्रयोग प्राप्त नहीं होता है । वर्धमानसूरि चन्द्रकुलीय थे । चन्द्रकुल के साथ खरतर विरुद शब्द का लगाना उपयुक्त न समझा । नवांगीटीकाकार अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र की व्याख्या (रचना सं० १९२८) इनके लिए चान्द्रे कुले सद्वनकल्पकक्षे, चन्द्रकुल, समवायांग की टीका प्रशस्ति में 'निःसम्बन्धविहारहारिचरितान्' ज्ञातासूत्र की टीका में निस्संबन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा और श्रीसंविग्नविहारिणः शब्दों का, औपपातिकसूत्र की टीका - प्रशस्ति में 'चन्द्रकुल और नि:संबन्धविहारस्य' तथा स्थानांगसूत्र की टीका के प्रारम्भ में 'चन्द्रकुलीनप्रवचनप्रणीताप्रतिबद्धविहारहारिचरित श्रीवर्द्धमानाभिधानमुनिपातिपादोपसेविनः प्रमाणादिव्युत्पादनप्रवणप्रकरण-विधप्रणायिनःप्रबुद्धप्रतिबन्धकप्रवक्तृप्रवीणाप्रतिहतवचनार्थप्रधानवाक्प्रसरस्य सुविहितमुनिजनमुख्यस्य श्रीजिनेश्वराचार्यस्य' का उल्लेख किया है । चन्द्रकुल के साथ शास्त्रविहित आचार का पालन करने वाले सुविहित विशेषण का प्रयोग प्राप्त होता है ।
आचार्य वर्धमान और जिनेश्वर ने चैत्यवास- उन्मूलन के लिए जो ज्योतिशिखा प्रज्वलित की थी, उस ज्योति-शिखा को प्रचण्ड रूप से प्रज्वलित करने वाले आचार्य जिनवल्लभसूरि, आचार्य जिनदत्तसूरि, जिनपतिसूरि, द्वितीय जिनेश्वरसूरि आदि हुए हैं। जिनवल्लभसूरि ने निषेध के साथ विधिमार्ग को प्रधानता दी इसलिए इनके समय से ये सुविहित विधिपक्षानुयायी कहलाने लगे । जन-समूह इन्हें खरतर कहता रहा किन्तु इन आचार्यों ने अपने साथ इस विरुद का प्रयोग नहीं किया । चैत्यवास प्रथा के निरसन के साथ
(३०)
Jain Education International 2010_04
-
स्वकथ्य
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org