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ही लोग जिह्वा पर चढ़ा शब्द इनके लिए 'खरतर संघ' अथवा 'खरतर गच्छ' का प्रयोग करने लगा। इस परम्परा ने इस लोक श्रुति को १२७० के पश्चात् ही अपने लिए कोटिकगण, वज्रशाखा चन्द्रकुल के साथ 'खरतरगच्छ' विरुद को अपना लिया जो आज तक अविच्छिन्न रूप से खरतरगच्छ के नाम से अभिहित होने लगा और हो रहा है। नये युग का सूत्रपात
गुर्जर-धरा पर चैत्यवासियों पर विजय और चैत्यवास का जड़ से उन्मूलन होने से एवं उनके खर, तीक्ष्ण,कठोर, कठिन, सुविहित आचार का पालन करने से जिनेश्वरसूरि ने सुविहितों के जीवन में नये प्राण फूंक दिये। यहाँ से एक नये युग का प्रारम्भ हुआ। जिनेश्वरसूरि के वैदुष्य और सुविहित आचार का प्रभाव समस्त भारत के उद्भट विद्वान् जैनाचार्यों पर भी पड़ा और वे शिथिलाचार का त्याग कर सुविहित आचार की ओर कदम बढ़ाने लगे। इस विराट प्रभाव का अंकन करते हुए पुरातत्त्वाचार्य मुनि 'जिनविजयजी' कथाकोश प्रकरण की प्रस्तावना पृष्ठ ६ पर लिखते हैं -
_ 'जिनेश्वरसूरि के प्रबल पाण्डित्य और प्रकृष्ट चारित्र का प्रभाव इस तरह न केवल उनके निज के शिष्यसमूह में ही प्रसारित हुआ, अपितु तत्कालीन अन्यान्य गच्छ एवं यतिसमुदाय के भी बड़े-बड़े व्यक्तित्वशाली यतिजनों पर उसने गहरा असर डाला और उसके कारण उनमें से भी कई समर्थ व्यक्तियों ने, इनके अनुकरण में, क्रियोद्धार और ज्ञानोपासना आदि की विशिष्ट प्रवृत्ति का बड़े उत्साह के साथ उत्तम अनुसरण किया। इनमें बृहद्गच्छ के नेमिचन्द्र और मुनिचन्द्रसूरिका संप्रदाय तथा मलधारगच्छीय अभयदेवसूरिका समुदाय एवं पूर्णतल्ल गच्छानुयायी प्रद्युम्नसूरि का शिष्य-परिवार विशेष उल्लेख योग्य है। मुनिचन्द्रसूरि की शिष्य-सन्तति में वादी देवसूरि, भद्रेश्वरसूरि, रत्नप्रभसूरि, सोमप्रभसूरि आदि बड़े ख्यातिमान्, महाविद्वान् और समर्थ ग्रंथकार हुए। इन्हीं की शिष्य परम्परा में आगे जा कर जगच्चन्द्रसूरि और उनके शिष्य देवेन्द्रसूरि तथा विजयचन्द्रसूरि आदि प्रख्यात आचार्य हुए, जिनसे श्वेताम्बर संप्रदाय में पिछले ५००६०० वर्षों में सबसे अधिक प्रतिष्ठाप्राप्त तपागच्छ नामक संप्रदायका प्रचार और प्रभाव फैला। वर्तमान में श्वेताम्बर संप्रदाय में सबसे अधिक प्रभाव इसी गच्छ का दिखाई दे रहा है।'
'मलधारगच्छीय अभयदेवसूरि के शिष्य - प्रशिष्यों में हेमचन्द्रसूरि (विशेषावश्यकभाष्यव्याख्यादि के कर्ता) लक्ष्मणगणी, श्रीचन्द्रसूरि आदि बड़े समर्थ विद्वान् हुए जिनके चारित्र और ज्ञान के प्रभाव ने तत्कालीन जैन समाज की उन्नति में विशेष प्रशंसनीय कार्य किया। पूर्णतल्ल गच्छ में देवचन्द्रसूरि और उनके जगत्प्रसिद्ध शिष्य कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि और उनके शिष्य रामचन्द्र, बालचन्द्र आदि हुए। हेमचन्द्रसूरि की सर्वतोमुखी प्रतिभा ने जैन साहित्यको कैसा गौरवान्वित किया और उनके अप्रतिम सदाचरण तथा अलौकिक तपस्तेज ने जैन समाज को कितना समुन्नत बनाया यह इतिहास प्रसिद्ध है।'
इसी प्रकार मनि जिनविजयजी इसी ग्रंथ की प्रस्तावना में 'जिनेश्वरसूरि से जैन समाज में नूतन युग का प्रारम्भ' शीर्षक से देते हुए लिखते हैं
स्वकथ्य
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