________________
'इनके प्रादुर्भाव और कार्यकलाप के प्रभाव से जैन श्वेताम्बर समाज में एक सर्वथा नवीन युग का आरम्भ होना शुरु हुआ। पुरातन प्रचलित भावनाओं में परिवर्तन होने लगा । त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकार के समूहों में नये संगठन होने शुरु हुए। त्यागी अर्थात् यतिवर्ग जो पुरातन परम्परागत गण और कुल के रूप में विभक्त था, वह अब नये प्रकार के गच्छों के रूप में संघटित होने लगा । देवपूजा और गुरूपास्तिकी जो कितनीक पुरानी पद्धतियां प्रचलित थीं उनमें संशोधन और परिवर्तन के वातावरण का सर्वत्र उद्भव होने लगा। इसके पहले यतिवर्ग का जो एक बड़ा समूह चैत्यनिवासी हो कर चैत्यों की संपत्ति और संरक्षा का अधिकारी बना हुआ था और प्रायः शिथिलक्रिया और स्वपूजानिरत हो रहा था, उसमें इनके आचार-प्रवण और भ्रमणशील जीवन के प्रभाव से, बडे वेग से और बडे परिमाण रूप में परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ । इनके आदर्श को लक्ष्य में रख कर, जैसा कि हम ऊपर सूचित कर आये हैं, अन्यान्य अनेक समर्थ यतिजन चैत्याधिकारका और शिथिलाचारका त्याग कर, संयम की विशुद्धि के निमित्त उचित क्रियोद्धार करने लगे और अच्छे संयमी बनने लगे। संयम और तपश्चरण के साथ-साथ, भिन्न-भिन्न विषयों के शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञान संपादन का कार्य भी इन यतिजनों में खूब उत्साह के साथ व्यवस्थित रूप से होने लगा। सभी उपादेय विषयों के नये नये ग्रंथ निर्माण किये जाने लगे और पुरातन ग्रंथों पर टीका-टिप्पण आदि रचे जाने लगे। अध्ययन-अध्यापन और ग्रंथ निर्माण के कार्य में आवश्यक ऐसे पुरातन जैन ग्रंथों के अतिरिक्त ब्राह्मण और बौद्ध संप्रदाय के भी, व्याकरण, न्याय, अलंकार, काव्य, कोष, छन्द, ज्योतिष आदि विविध विषयों के सभी महत्त्व के ग्रंथों की पोथियों के संग्रहवाले बड़े-बड़े ज्ञान भण्डार भी स्थापित किये जाने लगे । '
4
'अब ये यतिजन केवल अपने स्थानों में ही बद्ध हो कर रहने के बदले भिन्न-भिन्न प्रदेशों में घूमने लगे और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप, धर्म के प्रचार का कार्य करने लगे। जगह जगह अजैन क्षत्रिय और वैश्य कुलों को अपने आचार और ज्ञान से प्रभावित कर, नये नये जैन श्रावक बनाए जाने लगे और पुराने जैन गोष्ठी - कुल नवीन जातियों के रूप में संगठित किये जाने लगे। पुराने जैन देवमन्दिरों का उद्धार और नवीन मन्दिरों का निर्माण कार्य भी सर्वत्र विशेष रूप से होने लगा। जिन यतिजनों ने चैत्यनिवास छोड़ दिया था उनके रहने के लिए ऐसे नये वसतिगृह बनने लगे जिनमें उन-उन यतिजनों के अनुयायी श्रावक भी अपनी नित्य नैमित्तिक धर्मक्रियाएं करने की व्यवस्था रखते थे। ये ही वसतिगृह पिछले काल में उपाश्रय के नाम से प्रसिद्ध हुए । मन्दिरों में पूजा और उत्सवों की प्रणालिकाओं में भी नये नये परिवर्तन होने लगे और इसके कारण यतिजनों में परस्पर, शास्त्रों के कितनेक विवादास्पद विचारों और शब्दार्थों पर भी वाद-विवाद होने लगा, और इसके परिणाम में कई नये-नये गच्छ और उपगच्छ भी स्थापित होने लगे। ऐसे चर्चास्पद विषयों पर स्वतंत्र छोटे-बड़े ग्रंथ भी लिखे जाने लगे और एकदूसरे संप्रदाय की ओर से उनका खण्डन - मण्डन भी किया जाने लगा । इस तरह इन यतिजनों में पुरातन प्रचलित प्रवाह की दृष्टि से, एक प्रकार का नवीन जीवन प्रवाह चालू हुआ और उसके द्वारा जैन संघ का नूतन संगठन बनना आरम्भ हुआ । '
(३२)
Jain Education International 2010_04
स्वकथ्य
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org