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________________ 'इस तरह तत्कालीन जैन इतिहास का सिंहावलोकन करने से ज्ञात होता है, कि विक्रम की ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जैन यतिवर्ग में एक प्रकार से नूतन युग की उषा का आभास होने लगा था जिसका प्रकट प्रादुर्भाव जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि के क्षितिज पर उदित होने पर दृष्टिगोचर हुआ। जिनेश्वरसूरि के जीवन कार्य ने इस युग-परिवर्तन को सुनिश्चित मूर्तस्वरूप दिया। तब से ले कर पिछले प्रायः ९०० वर्षों में, इस पश्चिम भारत में, जैन धर्म का जो सांप्रदयिक और सामाजिक स्वरूप का प्रवाह प्रचलित रहा उसके मूल में जिनेश्वरसूरि का जीवन सबसे अधिक विशिष्ट प्रभाव रखता है और इस दृष्टि से जिनेश्वरसूरि को, जो उनके पिछले शिष्य-प्रशिष्यों ने, युगप्रधान पद से सम्बोधित और स्तुतिगोचर किया है वह सर्वथा ही सत्य वस्तुस्थिति का निदर्शक है।' इस शास्त्रार्थ-विजय से जो साधु और श्रावक वर्ग में नव चेतना प्रादुभूत हुई और समाज में जो विकास हुआ उसका सारा श्रेय खरतरगच्छ को देते हुए 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास', चतुर्थ भाग* के पृष्ठ ४५५ में लिखा गया है - श्वेताम्बर परम्परा में आज जितने गच्छ विद्यमान हैं, उनमें सबसे प्राचीन गच्छ कौन-सा है तथा किस गच्छ ने जिनशासन के अभ्युदय-उत्थान में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, यह वस्तुतः एक गहन शोध का विषय है। इस विषय में नितान्त निष्पक्ष दृष्टि से उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यह तथ्य प्रकाश में आता है कि वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा के जितने गच्छ गतिशील हैं, उनमें वर्द्धमानसूरि एवं उनके यशस्वी शिष्य जिनेश्वरसूरि के अद्भुत साहस के परिणामस्वरूप विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रकट हुआ और कालान्तर में 'खरतरगच्छ' के नाम से विख्यात हुआ 'खरा' गच्छ सर्वाधिक प्राचीन गच्छ है। सर्वाधिक प्राचीन होने के साथ-साथ 'खरा गच्छ' ने जिनशासन के अभ्युदय-उत्थान के लिये और बाह्याडम्बरों के घटाटोप से आच्छन्न जैन धर्म के वास्तविक आगमिक स्वरूप को कतिपय अंशों में पुनः प्रकाश में लाने की दिशा में भी ऐसा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक योगदान दिया, जो जैनधर्म के इतिहास में सदा सर्वदा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा। खरतरगच्छ की पट्ट-परम्परा खरतरगच्छ/सुविहित-परम्परा का उद्भव वर्धमानसूरि से ही माना जाता है। महाराजा दुर्लभराज की राजसभा में जो चैत्यवासी आचार्यों के साथ शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें एक पक्ष का नेतृत्व वर्धमानसूरि ने ही किया था। उन्होंने अपनी उपस्थिति में ही शास्त्रार्थ करने का अधिकार अपने शिष्य जिनेश्वरसूरि * निर्देशन - स्थानकवासी समाज के पूज्य आचार्य श्री हस्तिमलजी महाराज, लेखक एवं मुख्य सम्पादक - श्री गजसिंह राठौड़, मुख्य सम्पादक - श्री प्रेमराज बोगावत, सम्पादक मण्डल - श्री देवेन्द्रमनि शास्त्री, डा० नरेन्द्र भानावत, प्रकाशक जैन इतिहास समिति, जयपुर, प्रकाशन सन् १९८७ स्वकथ्य For Private & Personal Use Only (३३) www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_04
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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