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को दिया था। जिनेश्वरसूरि ने शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की किन्तु उसका नेतृत्व वर्धमानसूरि का ही रहा, अतः विजय और विरुद भी उन्हीं का ही माना जाना चाहिए। जिनपालोपाध्याय ने खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली का प्रारम्भ भी वर्धमानसूरि से ही किया है। इसी समय से खरतरगच्छ की परम्परा मानी जाती है। यह परम्परा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। पट्टधर आचार्यों की पट्ट-परम्परा इस
प्रकार है -
३९. श्री वर्द्धमानसूरि
४०. श्री जिनेश्वरसूरि ४१. श्री जिनचन्द्रसूरि ४२. श्री अभयदेवसूरि
४३. श्री जिनवल्लभसूरि ४४. युगप्रधान जिनदत्तसूरि
(प्रथम दादा) ४५. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि
४६. श्री जिनपतिसूरि
४७. श्री जिनेश्वसूरि (द्वितीय) (द्वितीय दादा) ४८. श्री जिनप्रबोधसूरि
४९. श्री जिनचन्द्रसूरि ५०. श्री जिनकुशलसूरि
(तृतीय दादा) ५१. श्री जिनपद्मसूरि
५२. श्री जिनलब्धिसूरि ५३. श्री जिनचन्द्रसूरि ५४. श्री जिनोदयसूरि
५५. श्री जिनराजसूरि ५६. श्री जिनभद्रसूरि ५७. श्री जिनचन्द्रसूरि
५८. श्री जिनसमुद्रसूरि ५९. श्री जिनहंससूरि ६०. श्री जिनमाणिक्यसूरि
६१. युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ६२. श्री जिनसिंहसूरि
(चतुर्थ दादा) ६३. श्री जिनराजसूरि (द्वितीय) ६४. श्री जिनरत्नसूरि ६५. श्री जिनचन्द्रसूरि ६६. श्री जिनसुखसूरि
६७. श्री जिनभक्तिसूरि ६८. श्री जिनलाभसूरि ६९. श्री जिनचन्द्रसूरि
७०. श्री जिनहर्षसूरि ७१. श्री जिनसौभाग्यसूरि ७२. श्री जिनहंससूरि
७३. श्री जिनचन्द्रसूरि ७४. श्री जिनकीर्तिसूरि ७५. श्री जिनचारित्रसूरि
७६. श्री जिनविजयेन्द्रसूरि श्री जिनलाभसूरि से जिनविजयेन्द्रसूरि तक की परम्परा 'श्रीपूज्य' परम्परा कहलाती है। इस परम्परा में शिथिलाचार प्रवेश कर चुका था अतः प्रीतिसागरगणि के पौत्र शिष्य और अमृतधर्मगणि के शिष्य श्री क्षमाकल्याणोपाध्याय ने क्रियोद्धार कर संविग्न परम्परा की स्थापना की। इसी प्रकार श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि और श्री मोहनलालजी महाराज भी क्रियोद्धार कर संविग्न पक्षीय बने। अतः इन तीनों की संविग्न साधुपरम्परा की सूची प्रस्तुत की जा रही है६९. प्रीतिसागरगणि > अमृत्धर्मगणि > क्षमाकल्याणोपाध्याय > धर्मानंद > राजसागर >
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स्वकथ्य
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