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सुखसागर > भगवान्सागर > छगनसागर > त्रैलोक्यसागर > जिनहरिसागरसूरि > जिनानंदसागरसूरि > जिनकवीन्द्रसागरसूरि > गणनायक हेमेन्द्रसागरजी > जिनोदयसागरसूरि, जिनकांतिसागरसूरि > जिन महोदयसागरसूरि > गणनायक उपाध्याय कैलाशसागर।
जिनकृपाचन्द्रसूरि मूलतः इसी मूल-परम्परा के र्कीतिरत्नसूरि के सन्तानीय थे। उन्होंने भी क्रियोद्धार कर संविग्न पक्ष धारण किया। उनकी परम्परा की नामावली इस प्रकार है - जिनकृपाचन्द्रसूरि > जिनजयसागरसूरि > उपाध्याय सुखसागर > मुनि कांतिसागर ।
मोहनलालजी महाराज भी खरतरगच्छ की मंडोवरा शाखा के अनुयायी थे। वे भी शिथिलाचार का त्याग कर संवेगी मुनि बने। इनकी परम्परा खरतरगच्छ, तपागच्छ दोनों गच्छों में चली। यहाँ केवल खरतरगच्छ परम्परा की सूची दी जा रही है। उनकी परम्परा इस प्रकार है - मोहनलालजी महाराज > जिनयशःसूरि > जिनऋद्धिसूरि > जिनरत्नसूरि > बुद्धिमुनिगणि > जयानन्दमुनि।
खरतरगच्छ की इस मान्य परम्परा को विच्छिन्न/खण्डित एवं मनोकल्पित सिद्ध करने के प्रयास में 'नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि खरतरगच्छ के थे, ऐसा मानने पर हम खरतरगच्छ के उप-जीव्य न हों?' इस धारणा से कुछ विद्वानों का यह अभिमत है कि खरतरगच्छ की उत्पत्ति जिनवल्लभसूरि से मानी जा सकती है।
जिनवल्लभसूरि चैत्यवासी आचार्य के शिष्य होने पर भी उन्होंने नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के पास उप-सम्पदा ग्रहण की थी इस बात को 'जिनवल्लभगणि' स्वयं अपनी ‘अष्टसप्तति' में स्वीकार करते हैं। युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि 'गणधरसार्द्धशतक' में जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर मानते हैं। 'पल्ह कवि' (१२वीं शताब्दी) 'जिनदत्तसूरि स्तुति' (पद्य ४) में जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर स्वीकार करते हैं। यही नहीं जिनवल्लभसूरि के स्वर्गवास के ४ वर्ष पश्चात् ही 'चन्द्रकुलीय धनेश्वरसूरि' सम्वत् ११७१ में सुक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण की १४२ पद्य की व्याख्या करते हुए लिखते हैं - "जिणवल्लहगणि" त्ति जिनवल्लभगणिनामके न मतिमता सकलार्थसङ्ग्राहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण 'लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्रेभ्यः समुद्धत्य दृब्धं जिनवल्लभगणिलिखितम्।"
इसी प्रकार तपागच्छीय आचार्य मुनिसुन्दरसूरि स्वप्रणीत 'त्रिदशतरंगिणी गुर्वावली' में भी जिनवल्लभ को अभदेवसूरि का पट्टधर स्वीकार किया है। 'राजगच्छ पट्टावली' में भी (विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह, सम्पादक आचार्य जिनविजय पृष्ठ ६४) में भी लिखा है। यदि जिनवल्लभ अभयदेवसूरि के परमप्रिय शिष्य न होते तो अभयदेवसूरि से शिक्षा प्राप्त करने वाले 'कहारयणकोस' इत्यादि के निर्माता देवभद्राचार्य इनको कभी भी जिनवल्लभ को आचार्य पद देकर अभयदेवसूरि का पट्टधर घोषित नहीं करते। रुद्रपल्लीय परम्परा भी अपना प्रादुर्भाव अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभ के सहपाठी जिनशेखरसूरि से ही स्वीकार करते हैं।
स्वकथ्य
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