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महाराजा और विद्वानों की एक विशाल सभा एकत्र हुई जिसमें आशीर्वाद प्राप्ति हेतु सूरि महाराज को भी अपनी शिष्य मंडली सहित आमंत्रित किया।
इतः पूर्व एक बार किसी ने जैनों के "एगस्स सुतस्स अणंतो अत्यो" वाक्य पर उपहास किया था, जिस पर सूरिजी के विद्वान प्रशिष्य समयसुन्दर जी ने अगाम वाक्यों को सार्थक प्रमाणित करने की चुनौती स्वीकार की और व्याकरण सिद्ध "राजानो ददते सौख्यं' के दस लाख बाईस हजार चार सौ सात (१०२२४०७) अर्थ किए; जिसमें छद्मस्थ संभव अयुक्त अर्थ-योजना की पूर्ति के लिए २२२४०७ अर्थ छोड़ कर ग्रंथ का नाम अष्टलक्षी रखा। सम्राट ने इस सभा में प्रस्तुत ग्रंथ को बड़ी उत्सुकता से सुना और हर्षपूर्वक विद्वद् मंडली की प्रशंसा के बीच अपने हाथ से सौभाग्यशाली ग्रंथ निर्माता श्री समयसुन्दर जी के कर-कमलों में समर्पित किया और इसके सर्वत्र अधिकाधिक प्रचार की शुभेच्छा प्रकट की।
मंत्रीश्वर ने वाचक जी आदि को निरवद्य आहार-पानी सुलभ हो इसके लिए कई अन्य श्रावकों को भी अपने साथ ले लिया। रोहितासपुर पहुंचने पर सम्राट ने मंत्रीश्वर को शाही अन्तःपुर की रक्षा हेतु वहीं रख दिया। काश्मीर की ठण्ड और पथरीले विषम मार्ग में पैदल चलने के कठिन परिषह को सहते देख सम्राट बड़ा प्रभावित हुआ। उसने मार्ग के कितने ही तालाबों की हिंसा बन्द कराई और काश्मीर विजय कर लौटते हुए श्रीनगर में आठ दिन तक की अमारि उद्घोषणा की।
सं० १६४९ के माघ मास में लाहौर लौटने पर सूरिजी ने जयसोम, गुणविनय, रत्ननिधान, समयसुन्दर आदि मुनियों के साथ जाकर सम्राट को आशीर्वाद दिया। सम्राट ने वाचक जी को काश्मीर प्रवास में निकट से देखा था अतः उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए आचार्य पद से विभूषित करने के लिए सूरिजी से निवेदन किया।
सूरिजी की सम्मति पाकर सम्राट ने मंत्री कर्मचन्द्र से कहा-"वाचक जी सिंह के सदृश चारित्र धर्म में दृढ़ हैं अतः उनका नाम "सिंह सूरि" रखा जाय और बड़े गुरु महाराज के उपयुक्त तुम्हारे धर्मानुसार ऐसा कौन सा सर्वोच्च पद है, जो उन्हें दिया जाए।" मंत्री कर्मचन्द्र ने श्री जिनदत्तसूरि का जीवनवृत्त बतलाया और उनको देवता प्रदत्त युगप्रधान पद से प्रभावित होकर अकबर ने सूरिजी को "युगप्रधान" घोषित करते हुए जैन धर्म की विधि के अनुसार उत्सव करने की आज्ञा दी। कर्मचन्द्र ने राजा रायसिंह जी की अनुमति पाकर संघ को एकत्र किया और संघ आज्ञा प्राप्त कर फाल्गुन कृष्णा १० से अष्टाह्निका-महोत्सव प्रारम्भ किया और फाल्गुन शुक्ला २ के दिन मध्याह्न में श्री जिनसिंहसूरि को आचार्य पद, वा० जयसोम और रत्ननिधान को उपाध्याय पद, पं० गुणविनय और समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद से विभूषित किया गया। यह उत्सव संखवाल साधुदेव के बनवाये हुए खरतर-गच्छोपाश्रय में हुआ। मंत्रीश्वर ने दिल खोलकर अपार धनराशि व्यय की। सम्राट ने लाहौर में तो अमारि उद्घोषणा की ही, पर सूरिजी के उपदेश से खंभात के समुद्र के असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षावधि अभयदान देने का फरमान जारी किया। "युगप्रधान" गुरु के नाम पर मंत्रीश्वर
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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