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________________ पद से विभूषित किया। नवानगर के चातुर्मास के समय दोसी माधवादि ने ३६००० जामसाही (मुद्रा) व्यय की। राउल कल्याणदास व कुंवर मनोहरदास के आमंत्रण से जैसलमेर पधारे। संघवी थाहरू ने प्रवेशोत्सव किया। आपके शिष्य-प्रशिष्यों की संख्या ४१ थी। सं० १६७८ में फाल्गुन कृष्णा ७ को जैसलमेर में रंगविजय जी को दीक्षा दी एवं उपाध्याय पद से भी आपने ही उन्हें विभूषित किया था। सं० १७०० में चातुर्मास हेतु पाटण पधारे और श्री जिनरत्नसूरि जी को पट्ट पर स्थापित कर आषाढ़ शुक्ला ९ को स्वर्ग सिधारे। 卐卐 आचार्य श्री जिनरत्नसूरि 8 मरुधर देश के सेरुणा ग्राम में ओसवाल लूणिया गोत्रीय तिलोकसी शाह की धर्मपत्नी तारादेव की कोख से आपने सं० १६७० में जन्म लिया। आपका जन्म नाम रूपचन्द था। सं० १७७१ में लिखे एक पत्र के अनुसार सेठ के दो स्त्रियों में प्रथम तारा के पुत्र का नाम रतनसी और जन्मदातृ तेजलदे के पुत्र रूपचन्द थे। सुखपूर्वक काल निर्गमन करते सेठ तिलोकसी का देहान्त हो गया। भट्टारक श्री जिनराजसूरि के बीकानेर पधारने पर वैराग्यवासित माता अपने दोनों पुत्रों के साथ बीकानेर आई और पूज्य श्री से निवेदन किया कि मुझे दोनों पुत्रों के साथ दीक्षित करने की कृपा करें। सूरिजी ने १६ वर्षीय रतनसी के साथ माता को दीक्षा दे दी। रूपचन्द आठ वर्ष के थे। अतः भावचारित्रीवैरागी रूप में विद्याध्ययन करने लगे, गृहस्थ के यहाँ भोजन करते थे। विमलकीर्ति गणि के पास महाव्याकरण, काव्यादि पढ़े। उनके गुरु श्री साधुसुन्दरोपाध्याय ने जब ये १४ वर्ष के थे तब जोधपुर में अध्ययनपूर्ण कराके पाटणस्थ भट्टारक आचार्य श्री जिनराजसूरि जी से वासक्षेप मंगा कर दीक्षित किया। जब ये १२ वर्ष के थे तब एक बार जालौर में तपागच्छपति श्री विजयदेवसूरि जी महाराज के सन्मुख पाँच घंटे तक धारा प्रवाह संस्कृत बोलते देख कर उन्होंने श्री जिनराजसूरि जी से कहा था"ये आपके पाट के अत्यधिक योग्य होगा।" सं० १६८४ वैशाख सुदि ३ को दीक्षा हुई। भणसाली गोत्रीय मंत्री सहसकरण के पुत्र मंत्री जसवंत ने दीक्षोत्सव किया। दीक्षा के पश्चात् इन्होंने यावज्जीवन कढ़ाई विगय का त्याग कर दिया था। भट्टारक श्री जिनराजसूरि जी ने इन्हें बड़ी दीक्षा देकर "रत्नसोम" नाम प्रसिद्ध किया। __आपके सद्गुणों और योग्यता से आकृष्ट हो श्री जिनराजसूरि जी ने अहमदाबाद बुलाकर उपाध्याय पद से विभूषित किया। नाहटा जयमल तेजसी ने बहुत सा द्रव्य व्यय करके उत्सव किया था। सं० १७०० में श्री जिनराजसूरि जी चातुर्मास हेतु पाटण विराजमान थे, कनकसिंह कृत गीत के अनुसार मिती आषाढ़ सुदि ७ को अर्थात् अपने स्वर्गवास के दो दिन पूर्व अपने पट्ट पर स्थापित कर स्वयं सूरिमंत्र देकर श्री जिनरत्नसूरि नाम प्रसिद्ध किया। पाटण से विहार कर श्री जिनरत्नसूरि जी पालनपुर पधारे, संघ ने हर्षित होकर उत्सव किया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२३७) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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