________________
जी को शास्त्रार्थ में आपने पराजित किया। सं० १६७४ में आचार्य श्री जिनसिंहसूरि जी का मेड़ता में स्वर्गवास हो जाने पर फाल्गुन शुक्ला ७१ को गच्छनायक आचार्य बने। इसका पट्ट महोत्सव मेड़ता के चोपड़ा गोत्रीय संघवी आसकरण ने किया। पूर्णिमापक्षीय श्री हेमाचार्य ने सूरि-मंत्र प्रदान किया था, इनके साथ ही आचार्य जिनसागरसूरि को भी पदस्थ किया गया।
अहमदाबाद निवासी संघपति सोमजी शाह ने शत्रुजय के अष्टमोद्धार रूप में मरुदेवी ट्रंक वाले शिखर पर खरतर-वसही की एक नई ढूंक विशाल रूप में अठावन लाख के अर्थ व्यय से निर्माण कराई। सोमजी शाह का देहान्त हो जाने पर उनके पुत्र रूप जी शाह ने सं० १६७५ वैशाख सुदि १३ शुक्रवार को श्री जिनराजसूरि जी के कर-कमलों से ५०१ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवायी। चारों ओर से विशाल यात्री संघ एकत्र हुआ। जैसलमेर निवासी थाहरु शाह भणशाली ने प्राचीन तीर्थ लौद्रवानी का पुनरुद्धार कराया और सहस्रफणा पार्श्वनाथ प्रभु की अद्वितीय कलापूर्ण दो प्रतिमाओं आदि की प्रतिष्ठा भी सं० १६७५ मार्गशीर्ष शुक्ला १३ को सूरिजी के कर-कमलों से सम्पन्न कराई। इन्हीं थाहरु शाह ने जैसलमेर में ज्ञान भण्डार स्थापित किया था और सूरिजी की निश्रा में शत्रुजय का संघ भी निकाला था। भाणवड़ नगर में अमृतस्रावि पार्श्वनाथ आदि जिनेश्वरों की ८० प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराकर तीर्थ की स्थापना भी आप ही ने की थी। सं० १६७७ ज्येष्ठ वदि ५ को मेड़ता नगर में गणधर चोपड़ा, आसकरण कारापित शान्तिनाथ जिनालयादि की प्रतिष्ठा की एवं बीकानेर, अहमदाबाद, पाली आदि नगरों में भी आपने कई बार प्रतिष्ठा कराई। सं० १६८६ में मार्गशीर्ष कृष्णा ४ रविवार को आप आगरे में सम्राट शाहजहाँ से मिले थे और वहाँ ब्राह्मणों को वाद में परास्त किया था। दर्शनीसाधु लोगों के विहार का जहाँ कहीं प्रतिषेध था वह खुलवाकर आपने शासनोन्नति की। राजा गजसिंह जी, सूरसिंह जी, असरफखान, आलम दीवान आदि ने आपकी बड़ी प्रशंसा की। नवाब मुकरबखान भी आपके शुद्ध और कठोर साध्वाचार का बड़ा प्रशंसक था। अम्बिका देवी और ५२ वीर आपके प्रत्यक्ष थे। आपने सिन्ध विहार में पंच नदी के पाँच पीरों को साधित किए थे। ____ आप उच्चकोटि के साहित्यकार भी थे। नैषधकाव्य पर ३६००० श्रीक परिमित जैनराजी वृत्ति, स्थानांगसूत्रविषमपदार्थ वृत्ति, शालिभद्र चौपाई, गजसुकमालचौपाई, चौबीसी, बीसी तथा संख्याबद्ध स्तवन सज्झाय पदादि की रचना की जो "जिनराजसूरिकृतिकुसुमांजलि" में प्रकाशित हैं। आपने ८ बार शत्रुजय की यात्रा की। पाटण के संघ के साथ गौड़ी पार्श्वनाथ, गिरनार, आबू, राणकपुरादि की यात्रा की। आपने ६ मुनियों को उपाध्याय पद, ४१ को वाचक पद एवं एक साध्वी जी को प्रवर्तिनी
१. प्रबंध में द्वितीया लिखी है। स्वर्गवास १६९९ भी मिलता है। संभव है दीक्षा में बड़ी दीक्षा की तिथि को
तथा स्वर्गवास संवत् को गुजराती पद्धति से लिखा हो। २. नैषधीय जैनराजी वृत्ति की पूर्ण प्रति भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पुणे में सुरक्षित है। किन्तु इस
प्रति में रचना प्रशस्ति प्राप्त नहीं है। महोपाध्याय विनयसागर संग्रह में दस सर्गात्मक प्रति प्राप्त है। निर्णय सागर, बम्बई के संस्करण में संपादकों ने टिप्पण में जैनराजी टीका के मतों का यत्र-तत्र उल्लेख किया है।
(२३६)
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org