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॥ नमो युगप्रधान-मुनीन्द्रेभ्यः।।
खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य-गुर्वावलि
[ मङ्गलाचरणम् ]
वर्धमानं जिनं नत्वा, वर्धमान-जिनेश्वराः। मुनीन्द्रजिनचन्द्राख्याऽभयदेवमुनीश्वराः॥१॥ श्रीजिनवल्लभसूरिः, श्रीजिनदत्तसूरयः। यतीन्द्रजिनचन्द्राख्यः, श्रीजिनपतिसूरयः॥२॥ एतेषां चरितं किञ्चिन्, मन्दमत्या यदुच्यते।
वृद्धेभ्यः श्रुतवेतृभ्यस्तन्मे कथयतः शृणु॥३॥ अन्तिम तीर्थंकर 'वर्धमान' श्री महावीर स्वामी को नमस्कार करके वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनपतिसूरि इन आचार्यों का यत्किञ्चित् जीवन चरित्र मैं अपनी मन्द-बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, जो मैंने परम्परा के जानने वाले वृद्धों से ज्ञात किया है। मेरे कथन को आप सुनिये
आचार्य श्री वर्धमानसूरि
१. अभोहर देश में चौरासी देव-घरों के मालिक चैत्यवासी जिनचन्द्र नाम के एक आचार्य थे। उनका वर्धमान नामक शिष्य था। उस शिष्य को शास्त्र पढ़ते समय जिन मन्दिर विषयक चौरासी आशातनाओं का वर्णन पढ़ने में आया। उनका विचार करते हुए वर्धमान के मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि-"यदि इन चौरासी आशातनाओं का रक्षण किया जाय तो आत्म-कल्याण हो।" उसने अपना यह विचार गुरु को निवेदन किया। गुरुजी ने मन में सोचा कि-"इसका मन ठीक नहीं है।" इसलिए उसे आचार्य पद पर स्थापित कर दिया। आचार्य पद मिलने पर भी उनका मन चैत्य-गृह में वास करके रहने में स्थिर नहीं हुआ। इसलिए अपने गुरु की सम्मति से वह कुछ मुनियों को साथ लेकर दिल्ली-१ वादली आदि १. भारतवर्ष की राजधानी, जिसे योगिनीपुर भी कहते थे। वादली नगर भी उसी प्रदेश में है जहाँ से वदलिया
(श्रीमाल) गोत्र हुआ।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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