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देशों की तरफ निकल आया। उस समय वहाँ पर श्री उद्योतनाचार्य नाम के सूरि विराज रहे थे। उनके पास वर्धमान ने आगम-शास्त्र के तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया और उन्हीं के समीप उपसंपदा अर्थात् पुनर्दीक्षा ग्रहण की। क्रमशः वे वर्धमानसूरि बन गये। इसके बाद उन वर्धमानसूरि को इस बात की चिन्ता हुई कि-"सूरि-मन्त्र का अधिष्ठाता देव कौन है?" इसके जानने के लिये उन्होंने तीन उपवास किए। तीसरा उपवास समाप्त होते ही धरणेन्द्र नामक देव प्रगट हुआ। धरणेन्द्र ने कहा कि-"सूरि-मन्त्र का अधिष्ठाता मैं हूँ।" और फिर उसने सूरि-मन्त्र के पदों का अलग-अलग फल बताया। इससे आचार्यमन्त्र स्फुरायमान हो गया। फिर वे वर्धमानसूरि सारे मुनि परिवार सहित स्फुरायमान हो गए। विशेष
वृद्धाचार्यप्रबन्धावली के अनुसार उद्योतनसूरि अरण्यवासी (वनवासी) गच्छ के नायक थे। वृद्धाचार्य-प्रबन्धावली एवं क्षमाकल्याणकृत खरतरगच्छ पट्टावली में कहा गया है कि दण्डनायक विमल द्वारा निर्मित विमलवसही के प्रतिष्ठापक उक्त वर्धमानसूरि ही थे। सूरिमन्त्र सिद्ध होने के पश्चात् ये स्फुराचार्य के नाम से भी विख्यात हुए। इनके द्वारा रचित उपदेशपदटीका (वि०सं० १०५५), उपदेशमालाबृहद्वृत्ति, उपमितिभवप्रपंचाकथासमुच्चय आदि ग्रन्थ मिलते हैं। दुर्लभराज की सभा में हुए शास्त्रार्थ (वि०सं० १०८० के आसपास) के पश्चात् ही इनका निधन हुआ।
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आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि
२. इसी अवसर में पण्डित जिनेश्वर गणि ने -जो वर्धमान सूरि के शिष्य थे, निवेदन किया कि "भगवन्! यदि कहीं देश-विदेश में जाकर प्रचार न किया जाय तो जिनमत के ज्ञान का फल क्या है? सुना है कि गुर्जर देश बहुत बड़ा है और वहाँ चैत्यवासी आचार्य अधिक संख्या में रहते हैं, अत: वहाँ चलना चाहिए।" यह सुनकर श्री वर्धमानाचार्य ने कहा-"ठीक है, किन्तु शकुन-निमित्तादि देखना परमावश्यक है, इससे सब कार्य शुभ होते हैं।" फिर वे वर्धमानसूरि सत्तरह शिष्यों को साथ लेकर भामह नामक बड़े व्यापारी के संघ के साथ चले। क्रम से प्रयाण करते हुए पाली पहुँचे। एक समय जब श्री वर्धमानसूरि पण्डित जिनेश्वरगणि के साथ बहिर्भूमिका (शौचार्थ) जा रहे थे, उन्हें सोमध्वज नाम जटाधर-जोगी मिला और उसके साथ मनोहर वार्तालाप हुआ। वार्तालाप के प्रसंग में सोमध्वज ने गुण देखकर आचार्य वर्धमान से प्रश्न किया
का दौर्गत्यविनाशिनी हरिविरंच्युग्रप्रवाची च को, वर्णः को व्यपनीयते च पथिकैरत्यादरेण श्रमः। चन्द्रः पृच्छति मन्दिरेषु मरुतां शोभाविधायी च को,
दाक्षिण्येन नयेन विश्वविदितः को वा भुवि भ्राजते॥१॥ १. जिनेश्वरसूरि का पूर्ववृत्त देखने के लिए देखें-प्रभावकचरितान्तर्गत अभयदेवसूरिचरित पृष्ठ १६१ से १६३ । २. पाली (जोधपुर डिवीजन)।
(२)
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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