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पाणिग्रहण हुआ, जिससे ३ पुत्र व १ पुत्री हुई। सं० १९४२ में फलौदी में श्री पुण्यश्री जी महाराज के प्रयत्न से वैशाख शुक्ला १० गुरुवार को दम्पति ने श्री भगवानसागर जी महाराज के कर-कमलों से दीक्षा ली। आप श्री राजसागर जी के शिष्य स्थानसागर जी महाराज के शिष्य बनाए गए। बड़ी दीक्षा ज्येष्ठ सुदि ८ को लोहावट में हुई। आपने दीक्षा लेते ही उग्र तपश्चर्या व शास्त्राध्ययन प्रारम्भ कर दिया। ४५ आगमों के वेत्ता बने एवं संस्कृत का खूब प्रचार किया। सं० १९५७ में भगवानसागर जी का स्वर्गवास होने पर ज्येष्ठ सुदि १४ से समुदाय का भार आपके ऊपर आ गया। आप ९ वर्ष २ मास ७ दिन समुदाय के अधिपति रहे। आपकी निश्रा में ६८ साध्वियां दीक्षित हुईं। अन्त में ५२ उपवास के संथारे पूर्वक सं० १९६६ द्वितीय श्रावण सुदि ६ को लोहावट नगर में स्वर्गवासी हुए। ४० उपवास तक तिविहार में जनता के समक्ष व्याख्यान धर्मोपदेश देते रहे। शेष १२ उपवास चौविहार किए। सं० १९७० के वैशाख में लोहावट में आपके चरण स्थापित किए गए।
महातपस्वी छगनसागर जी के स्वर्गवास के पश्चात् संघ ने श्री भगवानसागर जी के प्रमुख शिष्य श्री सुमतिसागर जी से (जो कि उस समय खानदेश में थे) गच्छ भार संभालने का अनुरोध किया था, किन्तु सुमतिसागर जी ने अपनी अनिच्छा प्रदर्शित करते हुए अपने गुरुभ्राता त्रैलोक्यसागर जी को सौंपने का आग्रह किया।
महोपाध्याय सुमतिसागर
जैसाकि पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि गणनायक भगवानसागर जी म० के प्रमुख शिष्य सुमतिसागर जी थे। इनका जन्म सं० १९१८ में नागौर में हुआ था। रेखावत गोत्रीय थे
और नाम था सुजाणमल। शादी भी हुई थी। पुत्री भी थी, जिसका भविष्य में विवाह धनराज जी बोथरा के साथ हुआ था। पुत्री की पुत्री का विवाह नागौर के ही सरदारमल जी समदड़िया के साथ हुआ था। वैराग्य रंग लग जाने से २६ वर्ष की अवस्था में घर-बार, पत्नी एवं पुत्री का त्याग कर सं० १९४४ वैशाख सुदि ८ के दिन सिरोही में भगवानसागर जी म० के पास दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बने। दीक्षावस्था का नाम था-मुनि सुमतिसागर । तत्कालीन गणनायक छगनसागर जी म० का स्वर्गवास होने पर संघ की बागडोर संभालने के लिये संघ ने सुमतिसागर जी से निवेदन किया था, किन्तु सुमतिसागर जी ने जो कि उस समय खानदेश में थे, अपने लघु गुरुभ्राता श्री त्रैलोक्यसागर जी को गणनायक बनाने का अनुरोध किया। आपने सं० १९६५ वैशाख सुदि १० के दिन राजनादगांव (छत्तीसगढ़) में दादाश्रीजिनकुशलसूरि के चरणपादुका की प्रतिष्ठा करायी। संवत् १९७२ में बम्बई में आचार्य श्री कृपाचन्द्रसूरि ने सुमतिसागर जी को उपाध्याय पद और संवत् १९७९ में इन्दौर में महोपाध्याय पद से अलंकृत किया, संवत् १९९४ पौष सुदि ६ के दिन आपका अचानक हृदय गति रुक जाने से कोटा में ७६ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हो गया।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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