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हुआ था। आपका जन्म नाम वीरजी था। सं० १६७२ में चार वर्ष की आयु में माता-पिता ने गुरु महाराज को समर्पित कर दिया। ये मतिसागर के शिष्य थे, उनसे जिनेश्वरसूरि ने गोद लिया था। लघु वय में प्रगाढ़ वैराग्य के कारण जिनेश्वरसूरि से दीक्षा ग्रहण की, दीक्षा नाम विवेकविजय हुआ। गुरुदेव की आज्ञा से सं० १६८२ मिगसर सुदि ५ को संघ कृत महोत्सव द्वारा आपको पट्ट पर स्थापित किया। आनंदविजय ने जब इन्हें अध्ययन कराने का कर्तव्य पालन न किया तो उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया। पं० गुणरत्न और पं० श्रीसार जो श्री जिनभद्रसूरि परम्परानुयायी थे, ने इन्हें व्याकरणादि पढ़ाया। किन्तु विद्या न आई तब त्रिपुरा भवानी को स्मरण कर शास्त्र-पारंगत होने का वरदान प्राप्त किया, जिससे ये वाद-विवाद, शास्त्रज्ञान में अजेय हो गये। देवी ने दो भाग्यशाली शिष्य प्राप्त होने का उनके अंग लक्षण, जन्म कुण्डली आदि भी बतलाते हुए उनकी प्राप्ति के बाद बाहर विहार करने का निर्देश किया।
__ सं० १६८४ में नगर में महामारी का उपद्रव फैला जिससे अनेक लोग काल-कवलित होने लगे। रावल मनोहरदास जी ने सर्वदर्शनी विद्वानों से लघुवयस्क जिनचन्द्रसूरि जी की प्रशंसा सुनकर, प्रधान पुरुषों द्वारा आमंत्रित कर दरबार में बुलाया। सूरिजी ने देव-गुरु प्रसाद से शान्ति होने का उपाय करना बतलाया। मिती पौष वदि १ को आप सपरिवार नगर के बाहर आ गये। ईशान कोण में हनुमानजी की भव्य प्रतिमा स्थापित कर बल-बाकुला विधि से योगिनी आदि को प्रसन्न कर उपद्रव मिटाया। नगर के चतुर्दिग् पंचामृत की धारा देकर समारोहपूर्वक प्रवेश किया। सर्वत्र सुयश प्राप्त हुआ।
सं० १६८७ में माघ सुदि १४ के दिन माधवदास और राघवदास, जो श्री श्रीमाली और माहेश्वरी जाति के थे, देवी के वचनानुसार आये। रावल जी ने राघवदास का रामचन्द्र नाम देकर सम्मानपूर्वक उपाश्रय भेजकर पढ़ाने में उद्यम करने का निर्देश दिया। ज्योतिषियों ने अंग लक्षण देखकर पट्ट योग्य बतलाया। जन्मपत्री मंगा कर देखी गई। सं० १६८८ वैशाख सुदि ३ के दिन विजय मुहूर्त में दीक्षा का मुहूर्त निकला। दीक्षोत्सव बड़े धूमधाम से किया गया। वरघोड़ा जुलूस के साथ घड़सीसर पहुंचे। श्रीवृक्ष के नीचे आने पर तालाब से पाँच हाथियों ने सुण्डा दण्ड में जल लाकर अभिषेक किया। विधिपूर्वक दीक्षा देकर महिमाचन्द्र नाम रखा गया। बड़े ठाठ के साथ उपाश्रय में प्रवेश हुआ। अल्प वयस्क होने पर भी व्याख्यान-पच्चक्खान आदि समस्त कार्य संभालने लगे। श्री जिनगुणप्रभसूरि जी ने मं० कोरपाल कल्लाणी को स्वप्न में कहा कि "ज्ञान भण्डार का कार्य महिमाचन्द्र को सौंपो अन्यथा ग्रन्थ उजड़ जायेंगे।" उन्होंने श्रीपूज्य जिनचन्द्रसूरि को कहा। उन्हें भी यही दृष्टान्त होने से सारा ज्ञान भण्डार महिमाचन्द्र को सौंप दिया। शासनदेवी ने उन्हें सांचौर की ओर विहार करने का संकेत दिया। तदनन्तर अनेक ग्राम नगरों में विचरते हुए सं० १७१३ पौष वदि १० के दिन अनशन-आराधना पूर्वक आयुपूर्ण कर पाँचवें देवलोक में गए। __सं० १७२१ में पूज्यश्री ने थिरपुर में दर्शन देकर उपद्रव दूर किया, सर्वत्र सुयश फैला। जिनसमुद्रसूरि जी ने इनकी स्तवना में पौष वदि १३ को प्रतिवर्ष व प्रति सोमवार को पूजा कराने का निर्देश किया है एवं इन्हें चमत्कारी, सर्वविघ्नहर, मनोवांछित दायक युगप्रधान बतलाया है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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