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बीलाड़ा के बुहरा टीला का पुत्र धन्ना भाग कर गुरु महाराज के पास जैसलमेर आया। पीछा करके आने वालों को उन्होंने समझा कर लौटा दिया और उसे अपना श्रावक बनाकर शीतपुर जाने का संकेत किया। वह वहाँ जाकर नाहड़ बारहमखान खानखाना का प्रधान हो गया। गुणसागर उपाध्याय को बुलाया। अन्य यति को न रखा, वह जैसलमेर आकर रहा। पर्युषण में चैत्य-प्रवाडी में झालर बजाने के झमेले में अपना ढोल ऊपर रखा।
इस प्रकार शासन की महती प्रभावना कर, ७२ वर्ष पर्यन्त संघ का नेतृत्व कर सं० १६५५ वैशाख वदि ८ को तिविहार और ग्यारस को संघ साक्षी से डाभ के संथारे पर १५ दिन संलेखना पूर्ण कर, ९० वर्ष ५ मास ५ दिन का आयुष्य पूर्णकर वैशाख सुदि ९ सोमवार को जैसलमेर में स्वर्ग सिधारे। आपके स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा सं० १६६३ में हुई जिस पर २१ पंक्ति का अभिलेख उत्कीर्णित है। सं० १६७१ श्रावण सुदि ११ को पं० मतिसागर द्वारा प्रतिष्ठित आपश्री के चरण अभी समयसुन्दर जी के उपाश्रय में रखे हुए हैं।
इनके द्वारा रचित चित्रसंभूतसंधि, सत्तरभेदीपूजास्तव, नवकारगीत आदि कई रचनायें प्राप्त होती हैं। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से इनके ६ शिष्यों-गुणसागर, कमलसुन्दर, मतिसागर, पं० भक्तिमंदिर, ज्ञानमंदिर, जिनेश्वरसूरि आदि का उल्लेख मिलता है।
७. आचार्य श्री जिनेश्वरसरि
ये सं० १६५५ में श्री जिनगुणप्रभसूरि जी के पट्ट पर विराजे । आपने गुरु महाराज के स्मारक स्तूप व चरण कमलों की प्रतिष्ठा कराई जिस पर २१ पंक्ति का विशद शिलालेख है जो इनके गुरुभ्राता और आज्ञानुवर्ती मतिसागर ने लिखा है। इसमें पं० विद्यासागर, पं० आणंदविजय, पं० उद्योतविजय आदि शिष्यों के नाम हैं। इन्होंने मतिसागर के शिष्य विवेकविजय को गोद लेकर अपना शिष्य बनाया किन्तु उसके लघुवयस्क होने से पं० आणंदविजय को वजीर पद देकर सं० १६८२ कार्तिक वदि १ को स्वर्ग सिधारे। इनका स्तूप जैसलमेर में है।
इनके द्वारा रचित जिनगुणप्रभसूरिप्रबन्ध नामक कृति मिलती है, जो वि०सं० १६५५ के बाद रची गयी है। इन्हीं के काल में वि०सं० १६७३ में जैसलमेर के बेगड़गच्छीय उपाश्रय के द्वार का निर्माण कराया गया। यह बात वहाँ लगे शिलालेख से ज्ञात होती है। (नाहर० जैन लेख संग्रह, भाग-३, लेखांक २४४७)
(८. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि
आप श्री गुणप्रभसूरि के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि के पट्टधर थे। बीकानेर निवासी बाफणा गोत्रीय सा० रूपजी की भार्या रूपादेवी की कोख से सं० १६६८ मिती वैशाख सुदि ३ को आपका जन्म
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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