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जिनचन्द्रसूरि के एक शिष्य जिनसागरसूरि से शाखा भेद हुआ। उनके शिष्य जिनदेवसूरि हुए। यह शाखा सं० १७८१ में श्री जिनोदयसूरि के समय वापस एक हो गई।
जिनचन्द्रसूरि ने वि०सं० १६९८ में पंचपाण्डवरास अपरनाम द्रौपदीरास की रचना की। इसी समय इनके एक शिष्य महिमानिधान ने ऋषिदत्ताचौपाई की रचना प्रारम्भ की, परन्तु वे अपने जीवनकाल में उसे पूर्ण न कर सके, जिसे इन्हीं की परम्परा में आगे चलकर हुए जिनसुन्दरसूरि के शिष्य क्षमासुन्दर ने वि०सं० १७६६ में पूर्ण किया। जिनेश्वरसूरि के एक अन्य शिष्य जिनलब्धिसूरि ने वि०सं० १७२४ में विचारषट्त्रिंशिकाप्रश्नोत्तर की रचना की। इन्हीं के एक शिष्य पद्मचन्द्र ने भरतसंधि की रचना की। धर्मचन्द्र ने वि०सं० १७६७ में ज्ञानसुखडी की रचना की।
(९. आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि)
आप श्रीमाल गोत्रीय हरराजकी धर्मपत्नी लखमादेवी के पुत्र थे। सं० १६८० माघ सुदि १५ रविवार को आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम रामचन्द्र था। सं० १६८८ पौष शुक्ल ३ को जैसलमेर में दीक्षा ली। दीक्षा नाम महिमचन्द्र-महिमसमुद्रहुआ।अनेक देशों में विहार कर भव्य जीवों को प्रतिबोध दिया एवं शासन प्रभावना की। ये बड़े विद्वान् और महाकवि थे। इनके रास, चौपाई, स्तवन, सज्झाय आदि भाषाकृतियाँ प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं। सं० १७२६ में ओसवाल, श्रीमाल संघ ने नन्दि महोत्सव करके आपको सांसनगर (?) जैसलमेर में आचार्य पद पर स्थापित किया। रावल अमरसिंहने आपश्री के अनेक चमत्कारों से प्रभावित होकर आपका बहुत सम्मान किया। उपाश्रय बनवाकर भेंट किया। सं० १७४१ कार्तिक सुदि १५ को सूरत नगर (वर्द्धनपुर) में ये स्वर्गवासी हुए। सूरत में शाह छतराज के महोत्सवादि करने का वर्णन मिलता है।
इनके समय में कुछ श्रावकों द्वारा जिनसागरसूरि को आचार्य पद दिया जो लहुड़ा बेगड़ कहलाये। इन्हीं के काल में वि०सं० १७२५ में पं रत्नसोम ने सूरत बन्दर स्थित अजितनाथ जिनालय में श्रीपालचरितबालावबोध की रचना की।
(१०. आचार्य श्री जिनसुन्दरसूरि)
आपका जन्म पारख वंश विभूषण शाह भोजराज की भार्या जसोदा देवी की कोख से श्रीमालपुर में सं० १७०२ में हुआ। जन्म नाम चिन्तामणि था। सं० १७१९ में दीक्षा ग्रहण की। सं० १७४१ कार्तिक शुक्ला १३ के दिन गुरु महाराज से आचार्य पद प्राप्त किया। सं० १७४२ में सूरत निवासी शाह विमलदास ने आचार्य पदोत्सव किया। युगप्रधान विरुद प्राप्त कर, ३१ वर्ष कठिन संयम पालते हुए अनेक सातिशय गुणों के निधान सूरि महाराज सं० १७७२ श्रावक सुदि ८ बुधवार को प्रहयापुर (?) नगर में स्वर्गस्थ हुए।
इन्होंने पोरबन्दर के राणभाण जेठुया के १२ वर्षीय खवीश के उपद्रव को शान्त किया। समुद्र की खाड़ी में सारे नगर की चारपायी के खटमल लाकर हिंसा की जाती थी जिसे बंद कराके ताम्रपत्र लिखवाया तथा शिकार बंद करवाया।
इनके द्वारा रचित मानतुंगमानवतीचौपाई तथा कई अन्य कृतियाँ भी मिलती हैं। (२७८)
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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