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ने, धर्मनाथ स्वामी की विमलचन्द्र पुत्र क्षेमसिंह ने, वासुपूज्य स्वामी की सब श्राविकाओं ने, मुनिसुव्रत स्वामी की थेहड़ नाम के गोठी ने, सीमंधर स्वामी की गोठी हीरा ने, पद्मनाभ स्वामी भगवान् की
अतिशय भाव से प्रधान सेठ हालाक ने विपुल धनराशि खर्च करके विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई। ध्यान रहे कि यह प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्य पालनपुर में हुआ था। उसी वर्ष सहजाराम सेठ के सुपुत्र बच्छड़ ने बाड़मेर जाकर बड़े उत्सव के साथ दो स्वर्णकलशों की प्रतिष्ठा करवाई और आदिनाथ मन्दिर के शिखर पर चढ़ाये। __ सं० १३१० में वैशाख सुदि ११ को जावालीपुर (जालौर) में चारित्रवल्लभ, हेमपर्वत, अचलचित्त, लोभनिधि, मोदमन्दिर, गजकीर्ति, रत्नाकर, गतमोह, देवप्रमोद, वीरानन्द, विगतदोष, राजललित, बहुचरित्र, विमलप्रज्ञ और रत्ननिधान इन पन्द्रह साधुओं को प्रब्रज्या धारण कराई। इन पन्द्रह में चारित्रवल्लभ और विमलप्रज्ञ पिता-पुत्र थे। इन्होंने साथ ही दीक्षा धारण की। इसी वर्ष वैशाख की त्रयोदशी के दिन शनिवार स्वाती नक्षत्र में श्री महावीर भगवान् के विधि-चैत्य में राजाश्री उदयसिंह जी आदि बहुत से राजा लोगों की उपस्थिति में राजमान्य महामंत्री श्री जैत्रसिंह जी के तत्वावधान में प्रह्लादनपुर (पालनपुर), वागड़ आदि स्थानों के मुख्य-मुख्य श्रावकों की सन्निधि में चौबीसी जिनालय, एक सौ सत्तर तीर्थंकर, सम्मेतशिखर, नन्दीश्वर द्वीप, तीर्थंकरों की मातायें, हीरा श्रावक के पास में स्थित नेमिनाथ स्वामी, उज्जयिनी सत्क श्रीमहावीर स्वामी, श्रीचन्द्रप्रभ स्वामी, श्री शान्तिनाथ स्वामी, एवं सेठ हरिपाल सत्क सुधर्मा स्वामी, श्री जिनदत्तसूरि, सीमंधरस्वामी, युगमन्धर स्वामी आदि की नाना प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा अभूतपूर्व महामहोत्सव के साथ की और प्रमोदश्री गणिनी को महत्तरा की उपाधि देकर लक्ष्मीनिधि नाम दिया तथा ज्ञानमाला गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया। (यह महोत्सव क्रिया जालौर में हुई हो ऐसा संभव है।) ___ सं० १३११ वैशाख सुदि ६ को पालनपुर में श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के विधि-चैत्य में भीमपल्ली नगरी के मन्दिर में स्थित श्री महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठा सेठ भूवनपाल ने अपने निजोपार्जित धन के व्यय से कराई। संघ समुदाय की ओर से ऋषभदेव स्वामी की; बोहित्थ श्रावक की तरफ से अनन्तनाथ स्वामी की; मोल्हाक नाम के श्रावक द्वारा अभिनंदन स्वामी की; आम्बा के भाई भावसार केल्हण की ओर से बाड़मेर के लिए नेमिनाथ स्वामी की; सेठ हरिपाल के छोटे भाई सेठ कुमारपाल की तरफ से श्रीजिनदत्तसूरि जी की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा पूज्यश्री से करवाई गई।
इसके बाद पालनपुर में खरतरगच्छ की नौका के कर्णधार, संस्कृत साहित्य के प्रौढ विद्वान वयोवृद्ध श्री जिनपालोपाध्याय जी ने अनशन करके इन्द्रादि देवों के गुरु बृहस्पति के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए स्वर्ग की ओर विहार किया।
तत्पश्चात् सं० १३१२ वैशाख सुदि पूर्णिमा के दिन चन्द्रकीर्ति गणि को उपाध्याय पद प्रदान किया गया और चन्द्रतिलकोपाध्याय नया नामकरण किया गया। उसी अवसर पर प्रबोधचंद्र गणि और लक्ष्मीतिलक गणि को वाचनाचार्य के पद से सम्मानित किया गया। इसके बाद ज्येष्ठ वदि १ को उपशमचित्त, पवित्रचित्र, आचारनिधि और त्रिलोकनिधि को प्रव्रज्या धारण करवाई गई।
(१२८) Jain Education International 2010_04
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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