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________________ आपने अपने शासन काल में बहुत सी दीक्षाएँ दी और अनेक स्थानों में विचरते हुए सं० १७६२ में सूरत बंदर पधारे। आषाढ़ सुदि ११ को स्वयं सकल संघ समक्ष अपने पट्ट पर श्री जिनसुखसूरि जी को स्थापित किया। पारख सामीदास, सूरदास ने पद महोत्सव बड़े धूमधाम से किया। सं० १७६३ में आपश्री सूरत में स्वर्गवासी हुए। 卐卐卐 आचार्य श्री जिनसुखसूरि आचार्य जिनचन्द्र के पट्ट पर श्री जिनसुखसूरि जी विराजे। ये फोगपत्तन निवासी साहलेच बोहरागोत्रीय पींचा नख के साह रूपसी' पुत्र थे। इनकी माता का नाम सुरूपा था। इनका जन्म सं० १७३९ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ को हुआ था और जन्म नाम सुखजी था। सं० १७५१ माघ सुदि ५ को पुण्यपालसर ग्राम में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षानंदिसूची के अनुसार आपकी दीक्षा सं० १७५२ फाल्गुन वदि ५ गुरुवार को बीकानेर में कीर्ति नंदी में हुई और आपका नाम सुखकीर्ति रखा गया और यह भी लिखा है कि आप स्वयं श्री जिनचन्द्रसूरि जी के शिष्य और बाद में "भट्टारक थया" किनारे पर उद्धृत किया गया है। सं० १७६३ आषाढ़ सुदि ११ को सूरत में पारख सामीदास सूरदास कृत पदमहोत्सवपूर्वक पाट पर विराजे। इस अवसर पर रातीजगा, संघ में पट्टकूलादि लावणी और स्वधर्मीवात्सल्यादि में प्रचुर द्रव्य व्यय किया गया। सूरि-पद प्राप्ति के अनन्तर कुछ वर्ष गुजरात में विचरे और प्रचुर परिमाण में दीक्षाएँ सं० १७६३, १७६६, १७६७, १७६८ में क्रमशः खंभात, पाटण और पालनपुरादि में अनेक बार हुईं। सं० १७७० में सांचौर, राड़धरा, सिणधरी, जालौर, थोभ, पाटोधी आदि में बहुत सी दीक्षाएँ हुईं। सं० १७७१ से १७७३ तक जैसलमेर एवं पोकरण में बहुत सी दीक्षाएँ हुईं। सं० १७७३ में नवहर में मिगसिर वदि ३ को इन्द्रपालसर के सेठिया भीमराज को दीक्षा देकर भक्तिक्षेम नाम से प्रसिद्ध किया। एक बार जब गुजरात में विचरते थे, घोघाबन्दर में नवखण्डा पार्श्वनाथ भगवान् की यात्रा करके संघ सहित श्री जिनसुखसूरि जी महाराज स्तंभतीर्थ जाने के लिए नौका में बैठे। दैवयोग से ज्योंही नाव समुद्र के बीच में पहुँची कि उसके नीचे का पाटिया टूट गया। ऐसी अवस्था में नाव को जल से भरती हुई देख कर आचार्यश्री ने अपने इष्ट देव की आराधना की। तब दादा गुरुदेव श्री जिनकुशलसूरि जी के सहाय्य से एकाएक उसी समय एक नवीन नौका दिखाई दी, जिस पर बैठ कर सारा संघ सकुशल समुद्रपार कर तट पर उतरा, फिर वह नौका वहीं अदृश्य हो गई। इस प्रकार श्री शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा करने वाले, सर्वशास्त्रों के पारगामी तथा शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को परास्त करने वाले आचार्य श्री जिनसुखसूरि जी थे। आपके द्वारा रचित जैसलमेर चैत्य संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२३९) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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