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परिपाटी एवं सं० १७६७ पाटण में रचित जैसलमेरी श्रावकों के प्रश्नों के उत्तरमय सिद्धांतीय विचार (पत्र ३५ जयचन्दजी भंडार') नामक ग्रंथ उपलब्ध हैं।
सं० १७८० ज्येष्ठ कृष्णा दशमी को रिणी (वर्तमान तारानगर) नगर में तीन दिन का अनशन पूर्ण कर श्री जिनभक्तिसूरि जी को अपने हाथ से गच्छनायक पद प्रदान कर स्वर्ग सिधारे। उस समय देवों ने अदृश्य रूप में बाजे बजाये, जिसे श्रवण कर उस नगर के राजा-प्रजा सभी लोग चकित हो गए थे। अन्त्येष्टि क्रिया के स्थान पर संघ ने एक स्तूप बनाया जिसकी प्रतिष्ठा माघ शुक्ला ६ सोमवार को आपके पट्टधर श्री जिनभक्तिसूरि जी ने की थी। वे चरण दादावाड़ी से लाकर रिणीतारानगर के शीतलनाथ जिनालय में रखे गये जो अभी विद्यमान हैं। उस पर निम्न अभिलेख उत्कीर्णित
है
"संवत् १७८० वर्षे शाके १६४५ प्रवर्तमाने ज्येष्ठ मासे कृष्ण पक्षे १० तिथौ शनिवारे भट्टारक श्री जिनसुखसूरि जी देवलोकं गतः तेषां पादुके श्रीरिणीमध्ये भट्टारक श्री जिनभक्तिसूरिभिः प्रतिष्ठितं । शुभभूयात्।.... माघ सुदि ६ तिथौ।"
शुभ आचार्य श्री जिनभक्तिसूरि
श्री जिनसुखसूरि के पट्ट पर श्री जिनभक्तिसूरि आसीन हुए। इनके पिता सेठ गोत्रीय सा० हरिचन्द्र थे, जो इन्द्रपालसर गाँव निवासी थे। इनकी माता थी हरिसुख देवी। सं० १७७० ज्येष्ठ सुदि तृतीया को आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम भीमराज था और सं० १७७९ मिगसर वदि ३२ को नवहर में श्री जिनसुखसूरि जी ने दीक्षित कर "भक्तिक्षेम" नाम से प्रसिद्ध किया। सं० १७८०३ ज्येष्ठ वदि ३ को रिणीपुर में श्रीसंघ कृत महोत्सव से गुरु महाराज ने अपने हाथ से इन्हें पट्ट पर बैठाया था। तदनन्तर आपने अनेक देशों में विचरण किया। सादड़ी आदि नगरों में विरोधियों को हस्तिचालनादि प्रकार से (?) परास्त करके विजयलक्ष्मी को प्राप्त करने वाले, सब शास्त्रों में पारङ्गत, श्री सिद्धाचलादि सब महातीर्थों की यात्रा करने वाले, श्री गूढ़ा नगर में अजित जिन-चैत्य के प्रतिष्ठापक, महातेजस्वी, सकल विद्वज्जन शिरोमणि आचार्य श्री जिनभक्तिसूरि के राजसोमोपाध्याय,
१. उपाध्याय यति जयचन्द्र जी बीकानेर का संग्रह वर्तमान में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, शाखा कार्यालय,
बीकानेर में सुरक्षित है। २. पाठान्तर माघ शुक्ल ९ ३. १७७९ (ऐ०जै०का०सं०, पृ० २५२) ४. इनकी दीक्षा सं० १७५४ में श्री जिनरत्नसूरि पट्टे जिनचन्द्रसूरि द्वारा पाली में हुई। आचार्यश्री के शिष्य तिलकधीर (१७४६ दीक्षित) के शिष्य थे। ये क्षमाकल्याण जी के विद्यागुरु थे। इनका राजसोम-विद्यागुरु अष्टक ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित है।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
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