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रामविजयोपाध्यायादि' विद्वान् आज्ञानुवर्ती थे। प्रीतिसागरोपाध्याय सूरि जी के शिष्य थे, जिनकी दीक्षा सं० १७८९ चैत्र वदि ३ को सांचौर में हुई थी। उनका गृहस्थ नाम प्रेमचंद था ।
श्री जिनभक्तिसूरि जी ने बहुतों को दीक्षित किया । सं० १४७९-८०, ८१ में रिणी, गारबदेसर और बीकानेर में भक्ति नंदी में ३० दीक्षाएँ दीं ।
सं० १७८२ में बीकानेर में हर्ष नंदी में १९ दीक्षित हुए ।
सं० १७८३ में वर्द्धन नंदी में १७ दीक्षाएँ उदरामसर, कैरु और फलौदी में, सं० १७८४ में जैसलमेर में नंदन नंदी में ११ दीक्षाएँ और १७८६ में समुद्र नंदी में ६ दीक्षाएँ दीं ।
सं० १७८८ में सिणधरी में, १७८९ में सांचौर व मंगलवास में सागर नंदी में २० दीक्षाएँ दीं। सं० १७९० में सोजत, देहरिया तथा १७९१ में पाली में तिलक नंदी में १८ दीक्षाएँ हुईं। इसी वर्ष पाली में ९ दीक्षाएँ विमल नंदी में हुईं। सं० १७९३ जालौर, आगोलाई में सौभाग्य नंदी में १० दीक्षाएँ दीं।
सं० १७९४-९५ में बीकानेर में माणिक्य नंदी में ११ व लाभ नंदी में ८ दीक्षाएँ दीं। सं० १७९६ जैसलमेर में १२ दीक्षाएँ विलास नंदी में दीं। सं० १७९७ में सेन नंदी की, जिसमें जैसलमेर व सिणधरी में १४ दीक्षाएँ हुईं ।
सं० १८०० में पानला में कलश नंदी में ७ व जूनागढ़ में आनंद नंदी में भी ७ दीक्षाएँ सं० १८०२ में हुईं ।
इसके बाद आप कच्छ पधारे और श्री मांडवीबंदर में सं० १८०४ मिती ज्येष्ठ सुदि चतुर्थी को दिवंगत हुए। उस रात्रि को आपके अग्नि-संस्कार की भूमि ( श्मशान) में देवों ने दीपमाला की । सं० १८५२ में जैसलमेर स्थित अमृत-धर्मशाला में वा० क्षमाकल्याण जी ने आपके चरण प्रतिष्ठित किए।
उपा० प्रीतिसागर गणि के शिष्य अमृतधर्म का गृहस्थ- नाम अर्जुन था । इनको सं० १८०४ फाल्गुन सुदि १ को भुजनगर में जिनलाभसूरि जी ने दीक्षा दी थी। उनके शिष्य क्षमाकल्याण गणि की परम्परा में वर्तमान साधु समुदाय है ।
१. ये क्षेम शाखा में दयासिंह के शिष्य थे। इनका गृहस्थ नाम रूपचंद था । सं० १७५५ माघ वदि ६ को सादड़ी में श्री जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा दी थी। सं० १८०७ जोधपुर में इन्होंने गौतमीय महाकाव्य की रचना की ।
सं० १७८८ में शतकत्रय बालावबोध सोजत में रचा था।
२. देखें, खरतरगच्छ - दीक्षानन्दी सूची
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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