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८२. इसके पश्चात् जावालिपुर के संघ की प्रार्थना से जावालिपुर में जाकर पूज्य श्री ने वहाँ पर महावीर भगवान् को नमस्कार किया। सं० १३६४ की वैशाख वदि त्रयोदशी के दिन, मंत्री भुवनसिंह, सा० सुभट, मं० नयनसिंह, मं० दुस्साज, मं० भोजराज तथा सेठ सीहा आदि समस्त श्रीसंघ द्वारा किये जाने वाले नाना प्रकार के उत्सवों के साथ पूज्यश्री ने श्रीराजगृह आदि अनेक तीर्थों की यात्रावन्दन आदि से पुष्कल पुण्य संचय करने वाले वाचनाचार्य राजशेखर गणि को आचार्य पद प्रदान करके सम्मानित किया। इस उपलक्ष में समुदाय ने स्वपक्ष-परपक्ष सभी को आनन्द देने वाला मालारोपादि नन्दि महोत्सव भी किया। इसके बाद मार्ग में चोर-डाकू आदि के उपद्रव होने पर भी भणशाली दुर्लभ जी की सहायता से पूज्यश्री भीमपल्ली आये। पाटण के (खड़ा) कोटड़िका मोहल्ले में श्री शान्तिनाथ विधिचैत्य और श्रावक पौषधशाला आदि धार्मिक स्थानों के बनवाने वाले सेठ जैसल प्रभृति समुदाय की अभ्यर्थना से पूज्य महाराजश्री ने पाटण में आकर श्री शान्तिनाथ देव की वन्दना की। इसके बाद खंभात तीर्थ के कोटड़िका नामक पाड़े में, श्री अजितनाथ देव के विधि-चैत्यालय, श्रावक पौषधशाला आदि धर्म-प्रधान स्थानों के बनवाने में कुशल सेठ जैसल के साथ मंत्रणा करते हुए पूज्यश्री शेरीषक नामक गाँव में आकर श्री पार्श्वनाथ देव की वन्दना करके स्वपक्ष-परपक्ष को चमत्कार उत्पन्न करने वाले श्री जैसल श्रावक द्वारा कराये गये प्रवेश महोत्सव के साथ खंभात तीर्थ में प्रवेश करके, श्री अजितनाथ देव की वन्दना की। यह प्रवेश महोत्सव वैसा ही हुआ जैसा जिनेश्वरसूरि जी महाराज के पधारने पर मंत्री श्री वस्तुपाल जी ने करवाया था।
सं० १३६६ ज्येष्ठ वदि द्वादशी को अनेक प्रकार के उज्ज्वल कर्त्तव्यों से, जिसने अपने पूर्वजों के कुल का उद्धार कर दिया है और साधर्मिक लोगों के प्रति वात्सल्य भाव वाले सेठ जैसल ने श्रीपत्तन, भीमपल्ली, बाडमेर, शम्यानयन आदि नगरों से आये हुए संघ को साथ लेकर अपने ज्येष्ठ भ्राता तोला श्रावक को संघ का धुर्यपद देकर तथा छोटे भाई लाखू को मार्ग-प्रबन्धक का पद देकर इस विषम पंचमकाल में देश में म्लेच्छों का भयंकर उपद्रव होते हुए भी देवालय-प्रचलन-महोत्सव मनाकर खंभात से आगे तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया। उस संघ के साथ जयवल्लभ गणि, हेमतिलक गणि आदि ग्यारह साधु तथा प्रवर्तिनी रत्नवृष्टि गणिनी आदि पाँच साध्वियों से शुषूश्रित पूज्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी रवाना हुए। मार्ग में जगह-जगह चैत्यों में चैत्य परिपाटी आदि महोत्सव किये गये। अनेक प्रकार के बाजे बजाये गये। श्रावक लोगों ने मार्ग में जहाँ-तहाँ श्री देव-गुरुओं के गुण गाए। भाट लोगों ने अपनी नई-नई कविताएँ खूब पढ़ीं। चलते-चलते क्रम से सारा संघ श्री पीपलाउली ग्राम में पहुँचा। वहाँ पर श्री शत्रुजय महातीर्थ के दिखाई देने से श्रीसंघ ने बड़ा उत्सव मनाया। वहाँ से चलकर हर्ष की अधिकता के कारण विकसित रोम राजि से पवित्र तथा चतुर्विध संघ से परिवृत पूज्यश्री ने अपार संसार समुद्र में डूबते हुए लोगों के लिए प्रवहण समान श्री शत्रुजय महातीर्थ के अलंकार देवाधिदेव श्री ऋषभदेव जी को नमस्कार करने रूप यात्रा की। वहाँ पर सेठ सलखण के पुत्ररत्न सेठ मोकलसिंह आदि श्रावकों ने बड़े विस्तार से इन्द्रपदादि महोत्सव किए और ज्येष्ठ सुदि द्वादशी के दिन मालारोपण आदि नन्दि महोत्सव भी विस्तार से किया।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
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