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________________ देशविरति और कइयों ने सर्वविरति व्रत धारण किये। सर्वविरति व्रतधारकों में देवपाल गणि आदि मुख्य थे। उपदेश आदि से सब लोगों को समाधान देकर "जयदेवाचार्य को हम यहाँ भेज देंगे" ऐसा कह कर महाराज पुनः पश्चिम देश की ओर विहार कर गये। ३५. श्री जिनदत्तसूरि जी वहाँ से फिर बागड़ देश में आये। वहाँ व्याघ्रपुर में जयदेवाचार्य से भेंट हुई। महाराज ने जयदेवाचार्य को योग्य शिक्षा भलामण देकर रुद्रपल्ली भेज दिया और स्वयं व्याघ्रपुरी में रह कर श्री जिनवल्लभसूरि प्ररूपित, चैत्यगृहविधि स्वरूप "चर्चरी" काव्य की रचना की। उसको टिप्पन के आकार में लिखकर मेहर, वासल आदि श्रावकों को ज्ञान के लिए विक्रमपुर भेजा। विक्रमपुर में देवधर के पिता सण्हिया के घर के पास की पौषधशाला में एकत्रित होकर श्रावकों ने वह चर्चरी टिप्पण खोला। उसी समय उन्मत्त देवधर ने अचानक कहीं से आकर "चर्चरी टिप्पन क्या है कच्चरी टिप्पन है" ऐसे बोलते हुए चर्चरी टिप्पन श्रावकों के हाथ से छीन कर फाड़ डाला। ये लोग उस उन्मत्त का कुछ भी न कर सके। उसके पिता से शिकायत की तो उसने कहा"यह तो उन्मत्त है, इसका क्या इलाज किया जाय? तथापि हम उसे समझा देंगे। यह भविष्य में ऐसी हरकत नहीं करेगा।" श्रावकों ने सर्वसम्मति से पूज्यश्री को एक पत्र दिया। उसमें भेजी हुई चर्चरी पुस्तक के फाड़े जाने का हाल लिख दिया। पत्र लिखित समाचारों को जानकर पूज्य श्री ने दूसरा चर्चरी टिप्पन लिखवा कर भेजा और उसके साथ पत्र में यह भी लिखा कि-"देवधर को खोटी-खरी कुछ भी मत कहना। देव-गुरुओं की कृपा से यह थोड़े ही दिनों में सुधर जाएगा।" "चर्चरी" काव्य के दूसरे टिप्पन को पाकर सब श्रावकों ने एकत्र होकर उसे खोला और पढ़ने से सब को अतीव सन्तोष हुआ। देवधर को मालूम हुआ कि दूसरा टिप्पन आ गया है, तो उसने सोचा कि-"एक तो मैंने फाड़ डाला था। फिर भी आचार्य ने दूसरी बार भेजा है, तो जरूर इस पुस्तक में कुछ रहस्य छिपा हुआ है। जैसे भी हो यह बात जाननी चाहिए, प्रच्छन्नतया देखू इसके अन्दर क्या लिखा है?" एक दिन श्रावक लोग अपने नित्य नियम से निवृत्त होकर चर्चरीटिप्पन को स्थापनाचार्य के पास आले में रखकर पौषधशाला के कपाट बंद करके चले गए। देवधर को मौका मिल गया। वह अपने घर के उपरिभाग से उतरकर पौषधशाला में आ गया और यथास्थान रखे हुए उक्त टिप्पन को बड़े चाव से पढ़ने लगा। ज्यों-ज्यों पढ़ता गया त्यों-त्यों गाथाओं का अर्थ समझने से मन में आह्लाद आने लगा। "अनायतनं बिम्बं", "स्त्री पूजां न करोति'' ये दो पद उसकी समझ में नहीं आए। पुस्तकोल्लिखित जैन धर्म के उच्च रहस्यों को समझकर उसके मन में जैन सिद्धान्तों के प्रति बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो गई और उसने अपने मन में यह संकल्प किया कि मैं भी इस मार्ग का अनुसरण करूँगा। इधर जिनदत्तसूरि जी महाराज ने बागड़ देश में रहते हुये जिन साधु-साध्वियों को विद्याभ्यास करने के लिए धारा नगरी भेजे थे, उन सब को वहाँ से बुला लिए और सभी को सिद्धान्तों का अभ्यास कराया। अपने दीक्षित जीवदेवाचार्य को मुनीन्द्र (आचार्य) पद की उपाधि दी और अन्य शिष्यों को वाचनाचार्य के पदों से सम्मानित किया, जिनके शुभ नाम ये हैं-वाचनाचार्य जिनरक्षित (४८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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