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गणि, वा० शीलभद्र गणि, वा० स्थिरचन्द्र गणि, वा० ब्रह्मचन्द्र गणि, वा० विमलचन्द्र गणि, वा० वरदत्त गणि, वा० भुवनचंद्र गणि, वा० वरनाग गणि, वा० रामचन्द्र गणि, वा० मणिभद्र गणि और श्रीमति, जिनमति, पूर्णश्री, ज्ञानश्री, जिनश्री इन पाँच आर्याओं को महत्तरा पद से विभूषित किया। इसी प्रकार स्वर्गीय हरिसिंहाचार्य के सुयोग्य शिष्य मुनिचंद्र जो उपाध्याय पदवी धारक थे। इन मुनिचन्द्र जी ने श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज से प्रार्थना की थी कि-"यदि मेरा कोई योग्य शिष्य आपके पास आ जाये तो कृपया आप उसे आचार्य पद देने की उदारता दर्शावें।" महाराज ने यह बात स्वीकार कर ली। कुछ काल के बाद उनके शिष्य जयसिंह को, दिये हुए वचन के अनुसार चित्तौड़ में आचार्य की उपाधि दी और उसी जयसिंह के शिष्य जयचन्द्र को भी पाटण में समवसरण में मुनीन्द्र (सूरि) पद पर स्थापित किया और महाराज ने दोनों को उपदेश दिया कि-"देखो, रीति से पालन करना, कहीं क्रिया-काण्ड में असावधानी न होने पावे।" जीवानन्द को उपाध्याय पदारूढ़ किया। यहाँ यदि इन आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य प्रभृति प्रत्येक मुनिवरों का पद-स्थापना के स्थान, योग्यता, शिष्य-प्रशिष्य आदि का वर्णन करने लगें तो एक बड़ा विस्तृत ग्रंथ बन जाएगा। इसलिए संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जिनदत्तसूरि जी महाराज ने आचार्यादि समस्त पदधारियों को भविष्य के लिए कर्त्तव्य समझा कर सब के विहार आदि के स्थान निश्चित कर दिये और महाराज स्वयं अजमेर की ओर प्रस्थान कर गये। अजमेर के भक्तिमान श्रावकों ने गाजे-बाजे के साथ ठाठबाट से पूज्य श्री का नगर प्रवेश कराया।
३६. वहाँ पर ठाकुर आशाधर आदि ने पहाड़ पर तीन देव मन्दिर एवं अम्बिका देवी आदि के स्थान बनवाये थे। श्रावकों की प्रार्थना से श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज ने अच्छा लग्न देखकर देवमन्दिरों के मूल निवेश में वासक्षेप किया और शिखर आदि मन्दिर के पार्श्ववती स्थानों में उन-उन मूर्तियों की स्थापना करवाई। यह पहले कहा जा चुका है कि विक्रमपुर में सण्हिया पुत्र देवधर चर्चरी टिप्पन के पढ़ने से सुविहित-पक्ष के प्रति अनुरक्त एवं भक्तिमान हो गया था। उसी देवधर ने कुटुम्ब के पन्द्रह श्रावकों को एकत्रित करके अपने पिता एवं सेठ आसदेव को सम्बोधन करके कहा-"श्री जिनदत्तसूर जी महाराज से यहाँ विक्रमपुर में पधारने हेतु विहार करने के लिये प्रार्थना करनी चाहिए।" यद्यपि ये लोग चैत्यवासी आचार्यों में श्रद्धा रखते थे, परन्तु प्रभावशाली देवधर के विरुद्ध बोलने का किसी को साहस नहीं हुआ। श्रावकों को साथ लेकर वह अजमेर के लिए चल पड़ा। मार्ग की थकावट दूर करने के लिए नागपुर में ठहरा। धनी मानी देवधर का विक्रमपुर से आना नागपुरवासियों को विदित हो गया।
३७. उस समय वहाँ पर चैत्यवासी देवाचार्य विशेष रूप से प्रसिद्ध हो रहे थे। देवधर भी कुछ सामान्य व्यक्ति नहीं था, खूब ख्याति प्राप्त था। वह "विक्रमपुर से आया है" ऐसा देवाचार्य ने सुना, इधर देवगृह में व्याख्यान का समय होने से देवाचार्य बैठे थे। तब देवधर अपने चरण प्रक्षालनादि कर देव-गृह में आया, प्रभु वन्दन कर आचार्य की वन्दना की। फिर दोनों ओर से सुखशाता और कुशलप्रश्न का शिष्टाचार हुआ। तत्पश्चात् श्रावक देवधर ने पूछा-"भगवन् ! जिस मन्दिर में रात्रि के समय स्त्रियों का प्रवेश आदि होता हो, उसे कैसा चैत्य कहना चाहिए?" इस प्रश्न को सुनकर देवाचार्य ने
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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