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सोचा-"इसके कान में जिनदत्तसूरि का मंत्र प्रवेश कर गया मालूम होता है।" तदनन्तर देवाचार्य ने प्रकट में कहा-"श्रावक जी! रात्रि में स्त्री प्रवेशादि उचित नहीं है।" देवधर - तो आप लोग फिर निवारण क्यों नहीं करते? आचार्य - लाखों आदमियों के मध्य में किस-किस को निवारण किया जाए? देवधर - भगवन् ! जिस देव मन्दिर में जिनाज्ञा न चलती हो, जहाँ जिनाज्ञा की अवहेलना करके लोग स्वेच्छा से बर्तते हों उसे जिनगृह कहा जाय या जनगृह? इसका जवाब दीजिये। आचार्य - जहाँ पर साक्षात् जिन भगवान् की प्रतिमा भीतर विराजमान दिखाई देती हो उसे जिनमन्दिर क्यों नहीं कहना चाहिए? देवधर - आचार्य जी! इतना तो हम मूर्ख लोग भी समझ सकते हैं कि जहाँ पर जिसकी आज्ञा न मानी जाती हो, वह उसका घर नहीं कहा जा सकता। केवल पाषाणमय अर्हत् मूर्ति को भीतर रख देने से और अर्हन्तों की आज्ञा को त्याग कर मनमाना व्यवहार करने मात्र से ही जिन मन्दिर क्यों कर हो सकता है? आप इस बात को जानते हुये भी प्रचलित प्रवाह को नहीं रोकते हैं। यह मैंने आपको वन्दन कर सूचित कर दिया कि आप रोकते नहीं, प्रत्युतः इसको पुष्ट करते हैं। इसलिए ऐसे गुरुओं को आज से मेरी यह अन्तिम वन्दना है। अब से जहाँ तीर्थंकरों की आज्ञा का यथार्थ रूप से पालन होता है, उसी मार्ग का मैं अनुसरण करूँगा। इस प्रकार कह कर देवधर वहाँ से उठकर चल दिया।
इस प्रश्नोत्तर को सुनकर साथ वाले स्वकुटुम्बी श्रावकों की भी विधिमार्ग में स्थिरता हो गई। देवधर श्रावक- वृन्द के साथ वहाँ से अजमेर गया। जिनदत्तसूरि जी महाराज की सेवा में पहुँच कर उसने भक्ति भाव पूर्वक वन्दना की। उनका अभिप्राय जान कर श्री सूरि जी ने देशना दी। देशना सुनने से देवधर के समस्त संशय दूर हो गये। देवधर आदि श्रावकों ने महाराज से विक्रमपुर विहार करने के लिए प्रार्थना की। अजमेर से देव-मन्दिर, प्रतिमा, अम्बिका, गणधर आदि की धूमधाम से प्रतिष्ठा करके सूरि जी महाराज देवधर के साथ विक्रमपुर आ गये। वहाँ पर बहुत से आदमियों को प्रतिबोध दिया और श्री महावीर स्वामी की स्थापना की।
- ३८. वहाँ से पूज्य गुरुदेव उच्चानगरी गये। मार्ग में जो विघ्नकारी भूत-प्रेत आदि मिले उनको भी प्रतिबोध दे दिया, तो फिर उच्चावासी लोगों को उपदेश दिया, इसमें तो कहना ही क्या है? वहाँ से वे नरवर गये। नरवर के बाद त्रिभुवनगिरि गये। वहाँ के कुमारपाल (यादव) नाम के राजा को सदुपदेश दे प्रतिबोध दिया। वहाँ बहुत से साधु सन्तों को विहार करवाया एवं भगवान् शान्तिनाथ देव की प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से उज्जैन जाकर व्याख्यान के समय महाराज को छलने के लिए श्राविकाओं के वेश में आयी हुई चौसठ योगिनियों को प्रतिबोधित दिया।
एक समय महाराज चित्तौड़ पधारे थे। नगर में प्रवेश के समय विघ्नप्रेमी लोगों ने काले सर्प को रस्सी से बाँध कर सूरिजी के सम्मुख ले आये। श्रावकों ने अपशकुन समझ कर गाजे-बाजे बंद
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
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