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________________ करवा दिये और सब पर विषाद छा गया तथा वे सब अत्यन्त दुःखी हुए। उनकी यह स्थिति देखकर ज्ञान के सूर्य श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज बोले-"आप लोग उदास क्यों हो गये हैं? जैसे यह काला सर्प रस्सी से बंधा है इसी तरह दूसरा भी जो हमारे प्रति द्वेष करते हैं वे भी इसी प्रकार जंजीरों से बांधे जाकर राजा द्वारा जेल खाने में डाले जायेंगे। इस बात का सूचक यह शकुन बहुत अच्छा है इसलिए जुलूस को आगे चलने दो?" जब कुछ दूर आगे पहुँचे तो दुष्टों ने अपशकुन के लिए ही एक नकटी औरत को सामने भेजा, वह आकर खड़ी हुई। उसको आगे खड़ी देखकर उसी की भाषा में पूज्य गुरुदेव बोले-"आई भल्ली''। उस दुष्टा ने प्रत्युत्तर दिया-"भल्लइ धाणुक्कई मुक्की।" कुछ हँसकर प्रतिभाशाली पूज्य श्री बोले-"पक्खहरा तेण तुह छिन्ना।" इसके बाद वह निरुत्तर हो वहाँ से चली गई। महाराज का प्रभाव देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इन महाराज ने अपने जीवन में अनेक आश्चर्यकारी कार्य किए। देवता लोग नौकरों की तरह सर्वदा इनका हुक्म उठाया करते थे। महाराज करुणा के समुद्र थे। महाराज श्री ने धारापुरी, गणपद्र आदि अनेक नगर, पुर, ग्रामों में महावीर, पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ, अजितनाथ आदि तीर्थंकरों की प्रतिमा, मन्दिर और शिखरों की स्थापना की थी। इन्होंने अपने ज्ञान बल से अपने बाद पाट की उन्नति करने वाले, रासल श्रावक के पुत्र जिनचन्द्रसूरि को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था। उन्होंने इस भवन में भव्य पुरुषों को उसी प्रकार प्रतिबोध दिया जैसे सूर्य कमलों को बोध देता है। इस प्रकार श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज का यह जीवन चरित्र अति संक्षेप से कहा गया है। अस्तु! उस नकटी औरत के हट जाने पर महाराज बड़े समारोहपूर्वक नगर में प्रविष्ट हुए और वहाँ पर कई दिनों तक रह कर तीर्थंकर प्रतिमाप्रतिष्ठा आदि बहुत से महोत्सव करवाये। वहाँ से प्रस्थान करके आचार्य श्री अजमेर गये। अजमेर में वि०सं० १२०३ फाल्गुन सुदी ९ (नवमी) को जिनचन्द्रसूरि को दीक्षा दी गई। अन्य मनुष्यों से दुःसाध्य अति कठिन तपोबल के प्रभाव से बहुत ही उत्तमोत्तम विद्याएँ व मंत्र-तंत्र तथा यंत्रों के प्रभाव को महाराज श्री जिनदत्तसूरि जी ने जान लिये थे अतः ये महात्मा भक्तों के वांछित मनोरथ सफल करने में चिन्तामणि रत्न के समान थे। इन्होंने वि०सं० १२०५ को वैशाख सुदि षष्ठी के दिन रासल मंत्री के कुल रूपी आकाश मंडल में चलते हुए सूर्य मण्डल जैसे प्रतापशाली श्री जिनचन्द्रसूरि को अपने पाट पर बैठाया। उस समय श्री जिनचन्द्रसूरि की अवस्था केवल नौ ही वर्ष की थी, परन्तु इतनी छोटी अवस्था में ही ये महात्मा बड़े-बड़े विद्वानों के कान कतरते और सौभाग्य-भाजन अनेक गुणों के निधान थे। अपनी उपस्थिति में जिनचन्द्रसूरि को उत्तराधिकार देकर तथा करने योग्य समस्त कार्यों को विधिपूर्वक सम्पन्न करके अजमेर में ही वि०सं० १२११ में आषाढ़ वदि एकादशी को श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज इस अस्थिर संसार को त्याग कर देवताओं को दर्शन देने के लिए इन्द्र की प्रसिद्ध नगरी अमरावती पधार गये। १. प्रस्तुत गुर्वावली के अतिरिक्त अन्य सभी पट्टावलियों तथा चरित्रों में स्वर्गगमन की तिथि आषाढ़ शुक्ल ११ ही उल्लिखित है तथा परम्परा से मान्य भी है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (५१) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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