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"जिनदत्तसूरि जी विहार करते हुए जब रुद्रपल्ली पधारे तब जिनशेखर ने बड़े समारोह के साथ उनका नगरप्रवेश कराया। रुद्रपल्ली के १२० श्रावक कुटुम्बों को जिनधर्म में दीक्षित किया तथा पार्श्वनाथ स्वामी और ऋषभदेव के दो मंदिरों की सूरिजी ने प्रतिष्ठा की। कई श्रावकों ने देशविरति और कई ने सर्वविरति व्रत धारण किया।" (वही, पृ० १८)
ऐसा प्रतीत होता है कि जब युगप्रधान जिनदत्तसूरि ने रासलनन्दन को वि०सं० १२०३ में अजमेर में दीक्षा देकर अल्पावस्था में ही वि०सं० १२०५ वैशाख सुदि ६ को विक्रमपुर में आचार्य पद प्रदान कर जिनचन्द्रसूरि नाम घोषित किया, तभी सम्भव है कि इससे रुष्ट होकर जिनशेखर इनसे पृथक् हो गये हों और रुद्रपल्लीय स्थान को ही अपना विचरणक्षेत्र बना लिया हो। रुद्रपल्लीय उनका प्रधान क्षेत्र होने के कारण इस शाखा का नाम रुद्रपल्लीय शाखा पड़ा हो। किन्तु यह नामकरण अनुमानतः ६-७ दशक बाद ही रुद्रपल्लीयगच्छ के नाम से जाना जाने लगा। यही कारण है कि परवर्ती आचार्यों की परम्परा में यह प्रमुख गच्छ के रूप में स्थान प्राप्त कर सका।
खरतरगच्छ की परम्परा को देखते हुए यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि आचार्य बनने पर 'जिन' शब्द नाम के आगे लगता है और चतुर्थ पट्टधर का हमेशा जिनचन्द्रसूरि नामकरण ही होता है। ये दोनों परम्परा-जिन और जिनचन्द्रसूरि नाम की परम्परा उसी समय से अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। खरतरगच्छ की विभिन्न शाखाओं में भी आज तक यही कम देखने को प्राप्त होता है, परन्तु रुद्रपल्लीय शाखा में यह क्रम प्राप्त नहीं होता। संभव है मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के आचार्य पद से अत्यन्त रुष्ट और खिन्न होकर इस परम्परा ने ये दोनों क्रम किये हों। इस परम्परा के आचार्यों द्वारा रचित साहित्य से स्पष्ट है कि जिनशेखर के पूर्ववर्ती परम्परा जिनवल्लभ, अभयदेव, जिनचन्द्र और जिनेश्वरसूरि से ही प्रारम्भ होती है। अतः रुद्रपल्लीय गच्छ को एक स्वतंत्र गच्छ न मानकर खरतरगच्छ की एक शाखा ही मानना चाहिए।
मुनि कान्तिसागर जी-जैनधातु-प्रतिमालेख, लेखांक २४२, संवत् १५४२; श्री नाहरजैनलेखसंग्रह, लेखांक २२००, संवत् १५३८ के लेख में जिनोदयसूरि पट्टे देवसुंदरसूरि का नाम प्राप्त होता है।
__ मुनि कान्तिसागर जी-जैनधातुप्रतिमालेख, लेखांक १२४ में, संवत् १५११ के लेख में और नाहर-जैनलेखसंग्रह, लेखांक २३३७ में, संवत् १५१६, लेखांक १२६७ में, संवत् १५१७, लेखांक १३१५ में, संवत् १५१३; विनय-प्रतिष्ठालेखसंग्रह भाग एक लेखांक ५२० में, संवत् १५१३, लेखांक ५७० में, संवत् १५१७, के लेखों में देवसुंदरसूरि पट्टे सोमसुंदरसूरि का नाम प्राप्त होता है।
__ विनय-प्रतिष्ठालेखसंग्रह भाग एक लेखांक ८३०, संवत् १५४२ के लेख में सोमसुंदरसूरि पट्टे हरिकलशसूरि नाम मिलता है। इसी के लेखांक ४५५ और ४५६ में संवत् १५१० रुद्रपल्लीय हरिभद्रसूरि का नाम प्राप्त है। इसी लेख संग्रह के लेखांक.६६९ और ८४० के संवत् १५२५ एवं १५४५ के लेखों में रुद्रपल्लीय हेमप्रभसूरि का नाम प्राप्त होता है। १. देखें, प्रभानन्दसूरि रचित ऋषभ पञ्चाशिका वृत्ति की रचना प्रशस्ति। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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