________________
८. गुणशेखरसूरि ९. संघतिलकसूरि
गुणचंद्रसूरि (१४१५-२१) सोमतिलकसूरि देवेन्द्रसूरि
गुणाकरसूरि हर्षसुन्दरसूरि लब्धिसुन्दरसूरि (१५०६) गुणसुन्दरसूरि (१५२८) सोमसुन्दरसूरि (१४९७-१५१७)
उ० गुणप्रभ यह परम्परा आगे कब तक चलती रही, यह प्रमाणाभाव से नहीं कहा जा सकता, किन्तु सं० १८६९ आषाढ़ वदि १० तथा सं० १८८९ भाद्रपद वदि ४ की लेखन प्रशस्तियों के आधार पर यह निश्चित है कि परम्परा नष्ट हो चुकी थी और जो कुछ अवशिष्ट थी, वह मथेन (कुलगुरु) के रूप में विद्यमान थी।
विशेष
आचार्य जिनशेखरसूरि के सम्बन्ध में जिनपालोध्याय ने खरतरगच्छयुगप्रधानाचार्यगुर्वावली (पृ० ८) में लिखा है-“कूर्चपुरगच्छीय जिनेश्वरसूरि ने सिद्धान्तविद्या का अध्ययन करने के लिये उस समय के प्रसिद्ध आगमवेत्ता आचार्य अभयदेवसूरि के पास जिनवल्लभ को जिनशेखर के साथ पाटण भेजा था। गणि जिनवल्लभ के साथ ही जिनशेखर ने भी अभयदेवसूरि से उपसम्पदा प्राप्त की थी। जिनशेखर आजीवन जिनवल्लभसूरि की ही सेवा में संलग्न रहे। जिनवल्लभसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् जब देवभद्राचार्य ने जिनदत्तसूरि को जिनवल्लभसूरि के पाट पर बिठाया तो जिनशेखर भी जिनदत्तसूरि के आज्ञानुवर्ती हो गये।"
गुर्वावली के पृष्ठ १६ पर लिखा है-"उसके कुछ अयुक्त कार्यों को देखकर देवभद्राचार्य ने उसे गच्छ से बहिष्कृत कर दिया। जिनदत्तसूरि से क्षमा माँगने पर उसे उन्होंने पुनः साधु परिवार में सम्मिलित कर लिया। जब देवभद्राचार्य को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने जिनदत्तसूरि से कहा कि इसे समुदाय में लेकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया। यह आपको कभी भी सुखावह नहीं होगा। उत्तर में जिनदत्तसूरि ने कहा कि “यह सदा से ही स्वर्गीय आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के सेवा में रहा है, इसे कैसे निकाला जाये? जब तक निभेगा तब तक निभायेंगे।"
___ "जिनदत्तसूरि ने जिनशेखर को उपाध्याय पद प्रदान किया। जिनशेखर रुद्रपल्ली के ही रहने वाले थे। उनके स्वजन-सम्बन्धी भी वहीं रहते थे अतः उन्होंने धर्म कार्य में विशिष्ट रूप से धर्म एवं शासन की वृद्धि के लिये जिनशेखर को रुद्रपल्ली भेज दिया।" (वही, पृष्ठ १७)
(२६२)
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org