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२. रुद्रपल्लीय शाखा
___ इस शाखा के प्रथम आचार्य श्री जिनशेखरसूरि थे जो आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि जी के शिष्य थे। इनके सम्बन्ध में सामान्यतया आचार्य जिनवल्लभसूरि तथा जिनदत्तसूरि के चरित्र में उल्लेख हो चुका है। उत्तर प्रदेश के रुद्रपल्ली नामक स्थान में जिनशेखरसूरि और उनके शिष्य-प्रशिष्यों के चातुर्मास हुए, विचरण हुआ। मन्दिर प्रतिष्ठादि अनेक धर्मकार्य हुए जो आज अतीत में विलीन हो चुके हैं। फिर भी प्रतिमा लेखों से विदित होता है कि श्री जिनवल्लभसूरि प्रतिबोधित दूगड़ आदि विभिन्न गोत्रों पर इस शाखा का प्रभाव था। पंजाब में भी इस शाखा के विभिन्न मुनिजनों का पर्याप्त विचरण हुआ था। इस शाखा के विभिन्न विद्वानों ने कई ग्रंथों का निर्माण भी किया है जिनके सम्बन्ध में इसी ग्रन्थ के अन्तर्गत तृतीय खण्ड में खरतरगच्छीय, साहित्यसूची द्रष्टव्य है। इस शाखा की आचार्य परम्परा का वंशवृक्ष इस प्रकार है१. श्री जिनशेखरसूरि
११. श्री अभयदेवसूरि २. श्री पद्मचंद्रसूरि
१२. श्री जयानंदसूरि ३. श्री विजयचंद्रसूरि
१३. श्री वर्द्धमानसूरि ४. श्री अभयदेवसूरि
१४. श्री जिनहंससूरि ५. श्री देवभद्रसूरि
१५. श्री जिनराजसूरि (१५०१) ६. श्री प्रभानन्दसूरि
१६. श्री जिनोदयसूरि (१५२५) ७. श्री चन्द्रसूरि (१३२७)
१७. श्री जिनचंद्रसूरि (१५३२) ८. श्री जिनभद्रसूरि
१८. श्री देवसुन्दरसूरि ९. श्री जगतिलकसूरि
१९. श्री जिनदेवसूरि १०. श्री गुणचन्द्रसूरि (१४१५-२१) ६. श्री प्रभानन्दसूरि की द्वितीय परम्परा में७. विमलचंद्रसूरि
१. सं० १२२२ में रुद्रपल्ली नगर में मणिधारी जिनचन्द्रसूरि जी के साथ "न्यायकन्दली" पठन प्रसंग में राजसभा
में शास्त्रार्थ में ये पराजित हुए थे।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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