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प्रतिष्ठालेखसंग्रह लेखांक ७४१, संवत् १५३२ के लेख में देवसुंदरसूरि पट्टे गुणसुंदरसूरि लिखा है। वहीं बीकानेरजैनलेखसंग्रह लेखांक १८३५, संवत् १४८७ के लेख में रुद्रपल्लीय श्री हर्षसुन्दरसूरि पट्टे श्री देवसुंदरसूरि का नामोल्लेख है।
नाहटा-बीकानेरजैनलेखसंग्रह लेखांक १४५५, वि० संवत् १५६९ के लेख में विनयराजसूरि, उपाध्याय आनन्दराज, चारित्रराज, वाचक देवरत्न के नाम प्राप्त होते हैं और इसी लेख संग्रह के लेखांक १६२६, संवत् १५५६ के लेख में सर्वसूरि नाम मिलता है।
___ कवि ऊद (संवत् १९७०) कृत छंद में हरिकलशसूरि (मंत्री, ठाकुर दूगड की पत्नी सालिगही के पुत्र) की परम्परा में उपाध्याय महिमानिधान के पट्टधर सोमध्वज का नाम प्राप्त है।
कवि सारंग कृत शत्रुजय छंद में देवसुंदरसूरि के वचनों से यात्रा का उल्लेख मिलता है।
श्री संघतिलकसूरि ने स्वकृत 'सम्यक्त्व सप्तति टीका' की रचना प्रशस्ति में जिनप्रभसूरि (लघु खरतरशाखा के आचार्य) का विद्या गुरु के रूप में उल्लेख किया है। रुद्रपल्लीय शाखा के विशिष्ट रचनाकार-जिनशेखरसूरि के प्रपौत्र शिष्य अभयदेवसूरि हुए जिनके लिये इस शाखा के परवर्ती आचार्यों ने इनका द्वितीय अभयदेव के नाम से गुणगान किया है। प्रथम अभयदेव नवाङ्ग टीकाकार हैं तो द्वितीय अभयदेव ये ही हुए। इनके द्वारा वि०सं० १२७८ में रचित जयन्तविजय महाकाव्य एक प्रसिद्ध कृति है।
जिनशेखरसूरि की परम्परा में छठे पट्टधर प्रभानन्दसूरि हुए, जिनकी प्रसिद्ध कृति हैऋषभपंचाशिका वृत्ति और वीतरागस्तुति वृत्ति । इन्हीं प्रभानन्दसूरि की परम्परा में सम्यक्त्वसप्तति टीका, वर्धमानविद्याकल्प आदि के रचनाकार संघतिलकसूरि हुए। संघतिलकसूरि के शिष्य सोमतिलकसूरि हुए। इनका दीक्षा नाम विद्यातिलक था। इनकी प्रसिद्ध रचनायें हैं-षट्दर्शन समुच्चय टीका, कुमारपालप्रबन्ध, शीलोपदेशमाला वृत्ति और त्रिपुराभारतीलघुस्तव टीका। संघतिलकसूरि के द्वितीय शिष्य देवेन्द्रसूरि हुए जिनकी प्रमुख रचना है प्रश्रोत्तररत्नमाला टीका (वि०सं० १४२०)। देवेन्द्रसूरि के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र हुए जिनकी प्रसिद्धतम कृति है-अपभ्रंशभाषा में रचित सन्देशरासक की टीका ।
दिवाकराचार्य की प्रसिद्ध कृति दानोपदेशमाला है। इसी परम्परा में जयानन्दसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि हुए। इन्होंने वि०सं० १४६८ में जालन्धर-नन्दनवनपुर (पंजाब) में आचारदिनकर की रचना की। यह कृति सविस्तर विधि-विधान का सर्वोत्तम और सर्वमान्य ग्रन्थ है। अंजनशलाका, प्रतिष्ठा आदि समस्त विधियाँ समस्तगच्छ वाले भी इसी को आधार बनाकर करते आ रहे हैं।
इसी परम्परा में भक्तामरटीका (१४२६) के प्रणेता गुणाकरसूरि, गौतमपृच्छावृत्ति (१४७६) के कर्ता श्रीतिलक और जिनपंजर स्तोत्रकार कमलप्रभाचार्य आदि अनेक प्रसिद्ध रचनाकार हुए।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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